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की भौतिकवादी जीवन दृष्टि को परिवर्तित किया जा सके। कथा वस्तु की प्राचीनता, प्रामाणिकता तथा तार्किकता की दृष्टि से इसे भी प्रस्तुत विवेचन में समाहित किया गया है । चार्वाक दर्शन के देहात्मवादी दृष्टिकोण के समर्थन में और उसके खण्डन के लिये तर्क प्रस्तुत करने वाला प्रथम ग्रन्थ राजप्रश्नीय सूत्र है । यही एक मात्र ऐसा प्राकृत आगम ग्रन्थ है, जो चार्वाक दर्शन के उच्छेदवाद और तज्जीव-तच्छरीरवाद के पक्ष और प्रतिपक्ष, दोनों के सन्दर्भ में तर्क प्रस्तुत करता है। राजप्रश्नीय में चार्वाकों की इन मान्यताओं के पूर्व पक्ष को और उनका खण्डन करने वाले उत्तर पक्ष को निम्न रूप में प्रस्तुत किया गया है -
राजा प्रदेशी (प्रसेनजीत ) - हे केशी कुमार श्रमण ! यदि आप श्रमण निर्ग्रन्थों की ऐसी मान्यता है कि जीव भिन्न है और शरीर भिन्न है किन्तु यदि ऐसी मान्यता नहीं है कि जो जीव है, वही शरीर है, तो मेरे दादा अत्यन्त अधार्मिक थे । आपके कथनानुसार वे अवश्यमेव नरक में उत्पन्न हुए होंगे। मैं अपने पितामह का अत्यन्त प्रिय पौत्र था । अतः पितामह को आकर मुझसे यह कहना चाहिये कि हे पौत्र ! मैं तुम्हारा पितामह था और इसी सेयविया (श्वेताम्बिका) नगरी में अधार्मिक यावत् प्रजाजनों से राजकर लेकर भी उनका यथोचित रूप से पालन नहीं करता था। इस कारण अतीव कलुषित पाप कर्मों का संचय करके मैं नरक में उत्पन्न हुआ हूँ। किन्तु पौत्र ! तुम अधार्मिक नहीं होना । प्रजाजनों से कर लेकर उनके पालन, रक्षण में प्रमाद मत करना, और न कलुषित, मलिन पाप कर्मों का संचय
करना ।
हे भदन्त ! मैं आपके कथन पर तभी श्रद्धा एवं प्रतीति कर सकता हूँ कि जीव और शरीर भिन्न-भिन्न है, जब मेरे पितामह आकर मुझे कहे। लेकिन यदि पितामह आकर नहीं कहते, तब तक मेरी यह धारणा अचल है कि जो जीव है, वही शरीर है। केशी श्रमण
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हे प्रदेशी ! यदि तुम अपनी रानी सूर्यकान्ता देवी को स्नानादि र, आभूषणों से विभूषित होकर किसी अन्य पुरुष के साथ कामभोगों को भोगते हुए देख लो तो तुम उसे क्या दण्ड दोगे? प्रदेशी - हे भगवन्! मैं उस पुरुष के हाथ पैर काट डालूँगा, उसे शूली पर चढ़ा दूँगा अथवा उसे जीवन रहित कर दूँगा ।
श्रमण - हे राजन् ! यदि वह पुरुष तुमसे यह कहे- स्वामी घड़ी भर रूको । तब तक मेरे हाथ-पाँव न काटो, जब तक कि मैं अपने मित्र,
366 / सूत्रकृतांग सूत्र का दार्शनिक अध्ययन
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