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कोई तत्त्व नहीं है, जो सर्वथा सर्व प्रकार से सर्व काल में रहता हो। इस प्रकार ये सर्वोच्छेदवाद की संस्थापना करते थे। जो लोग शून्य या अभाव से ही सृष्टि की उत्पत्ति मानते थे, वे सर्वोत्कूल थे। सम्भवत: यह बौद्ध ग्रन्थों में सूचित उच्छेदवादी दृष्टि का कोई प्राचीनतम रूप था, जो तार्किकता से युक्त होकर बौद्धों के शून्यवाद के रूप में विकसित हुआ होगा।
संक्षेप में यह कहा जा सकता है कि ऋषिभाषित में जो शरीर पर्यन्त आत्मपर्याय मानने का सिद्धान्त प्रतिपादित किया गया है, वही जैनों द्वारा आत्मा को देह परिमाण मानने के सिद्धान्त का पूर्व रूप प्रतीत होता है क्योंकि इस ग्रन्थ में शरीरात्मवाद के निराकरण के समय इस कथन को स्वपक्ष में भी प्रस्तुत किया गया है। इसमें जो देहात्मवाद का निराकरण किया गया है, वह ठोस तार्किक आधारों पर स्थित नहीं है। मात्र यह कह दिया गया है कि जीव का जीवन शरीर की उत्पत्ति और विनाश की काल सीमा तक सीमित नहीं है। राजप्रश्नीय में चार्वाक मत का प्रस्तुतीकरण एवं समीक्षा
आचार्य मलयगिरि ने रायपसेणीय सूत्र को सूत्रकृतांग का उपांग माना है। उनका मन्तव्य है कि सूत्रकृतांग में क्रियावादी, अक्रियावादी, अज्ञानवादी, विनयवादी प्रभृति पाखण्डियों के 363 मत प्रतिपादित है। उनमें से अक्रियावादी मत को आधार बनाकर राजा प्रदेशी ने केशी श्रमण से जो प्रश्नोत्तर किये थे, उनका उल्लेख राजप्रश्नीय सूत्र में मिलता है। तज्जीव-तच्छरीरवाद की स्थापना एवं समीक्षा भी इसी प्रश्नोत्तर में विस्तृत रूप में वर्णित हुई है।
रायप्रश्नीय में चार्वाक दर्शन का जो प्रस्तुतीकरण उपलब्ध होता है, ठीक यही चर्चा हमें बौद्ध त्रिपिटक साहित्य में बुद्ध और 'राजा पसाणीय' के बीच होने का उल्लेख मिलता है। जैन आगमों में इस चर्चा को पापित्य परम्परा के, महावीर के समकालीन आचार्य केशीकुमार श्रमण और राजा पायासी तथा बौद्ध त्रिपिटक में बुद्ध और पायासी के बीच सम्पन्न हुआ बताया जाता है। यद्यपि कुछ जैन आचार्यों ने पयेसी का संस्कृत रूप प्रदेशी मान लिया है। किन्तु देववाचक, सिद्धसेन गणि, मलयगिरि और मुनिचन्द्रसूरि ने राजा प्रसेनजित को ही माना है, जो ऐतिहासिक दृष्टि से अधिक प्रामाणिक लगता है।। ' प्रसेनजित को श्वेताम्बिका (सेयविया) नगरी का राजा बताया गया है, जो इतिहास सिद्ध है। उनका सारथी चित्त केशी कुमार को श्रावस्ती से यहाँ केवल इसलिये लेकर आया था कि राजा
सूत्रकृतांग सूत्र में वर्णित वादों का तुलनात्मक अध्ययन / 365
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