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ज्ञानों को यह बता न आऊँ कि मैं ऐसे पाप कर्म करने से यह दण्ड भोग रहा हूँ अत: तुम ऐसे पाप कर्म न करना, जिससे ऐसी सजा भोगनी पड़े। हे राजन् ! क्या तुम उस पुरुष की बात क्षण मात्र के लिये भी मानोगे ?
हे भदन्त ! मैं उसकी बात नहीं मान सकता क्योंकि वह पुरुष अपराधी है।
केशी श्रमण - हे राजन् ! इसी प्रकार नरक में उत्पन्न तुम्हारे पितामह तुम्हें प्रतिबोध देने के लिये आना चाहकर भी यहाँ आने में असमर्थ है। नारकीय जीव निम्न चार कारणों से पृथ्वी लोक पर नहीं आ सकते -
प्रदेशी
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उनमें नरक से निकलकर मनुष्य लोक में आने का सामर्थ्य ही नहीं होता ।
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नरकपाल उन्हें नरक से बाहर निकलने की अनुमति नहीं देते । नरक सम्बन्धी अशाता वेदनीय कर्म के क्षय नहीं होने के कारण वे वहाँ से निकल नहीं पाते।
उनका नरक सम्बन्धी आयुष्य कर्म जब तक क्षीण नहीं होता तब तक वे वहाँ से निकल नहीं सकते ।
अतएव प्रदेशी ! तुम यह मान्यता रखो कि जीव और शरीर दोनों भिन्न-2 है।
ज्ञातव्य है कि दीघनिकाय में भी नरक से मनुष्य लोक
आ पाने के इन्हीं चार कारणों का उल्लेख किया गया है। केशी श्रमण के इस प्रत्युत्तर को सुनकर राजा ने दूसरा तर्क किया प्रस्तुत प्रदेशी - हे श्रमण ! मेरी दादी अत्यन्त धार्मिक थी। आपके मतानुसार वह अवश्य
ही स्वर्ग में उत्पन्न हुई होगी। मैं अपनी दादी की आँखों का तारा था। अत्यन्त प्रिय था । अतः उसे यहाँ आकर मुझे यह बताना चाहिये कि मैं अपने पुण्य कर्मों के अनुसार स्वर्ग में उत्पन्न हुई हूँ। तुम भी मेरे जैसा धार्मिक जीवन जीओ, जिससे विपुल पुण्य का संचय करके स्वर्गलोक में उत्पन्न हो सको । चूँकि मेरी दादी ने स्वर्ग से आकर ऐसा उपदेश नहीं दिया । मैं यह नहीं मानता कि जीव अलग और शरीर अलग है।
अतः
सूत्रकृतांग सूत्र में वर्णित वादों का तुलनात्मक अध्ययन / 367
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