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है, वह अन्य किसी भी भारतीय साहित्य में उपलब्ध नहीं है। इसी प्रकार सूत्रकृतांग के द्वितीय श्रूतस्कन्ध एवं राजप्रश्नीय में चावार्क दर्शन की स्थापना और खण्डन के लिये जो तर्क प्रस्तुत किये हैं, वे भी महत्त्वपूर्ण कहे जा सकते है। इसके अतिरिक्त प्राकृत आगमिक व्याख्या साहित्य में मुख्यत: विशेषावश्यकभाष्य (6ठी शती) के गणधरवाद' में लगभग 500 गाथाओं में भौतिकवादी चार्वाक दर्शन की विभिन्न अवधारणाओं की समीक्षा महावीर की गौतम आदि 11 गणधरों के मध्य हुए वाद-विवाद के रूप में प्रस्तुत की गयी है, वह भी अतिमहत्त्वपूर्ण है। आगमों की प्राकृत एवं संस्कृत व्याख्याओं यथा-नियुक्ति, भाष्य, चूर्णि, वृत्ति आदि के अतिरिक्त जैन दार्शनिक ग्रन्थों में भी भौतिकवादी जीवन दृष्टि की समीक्षाएँ उपलब्ध है किन्तु इन सबको तो किसी एक किसी एक स्वतन्त्र ग्रन्थ में ही समेटा जा सकता है। अत: इस अध्याय की सीमा मर्यादा को देखते हुए हम अपनी विवेचना को प्राकृत आगम साहित्य तक ही सीमित रखेंगे। आचारांग में लोकसंज्ञा के रूप में लोकायत दर्शन का निर्देश
जैन आगमों में आचारांग का प्रथम श्रुतस्कन्ध अतिप्राचीन माना जाता है। इसमें स्पष्ट रूप से लोकायत दर्शन का उल्लेख तो नहीं है किन्तु ग्रन्थ में इसकी समीक्षा की गयी है। सूत्र के प्रारम्भ में कहा गया है कि कुछ लोगों को यह ज्ञात नहीं होता कि मेरी आत्मा पुनर्जन्म (औपपातिक) करने वाली है। मैं कहाँ से आया हूँ और इस जीवन के पूर्ण होने के पश्चात् कहाँ जन्म ग्रहण करूँगा ? सूत्रकार कहते है कि व्यक्ति को यह जानना चाहिये कि मेरी आत्मा औपपातिक है, जो इन दिशाओं और विदिशाओं में संचरण करती है और वही मैं हूँ। वस्तुतः जो यह जानता है, वही आत्मवादी, लोकवादी, कर्मवादी और क्रियावादी है।' इस प्रकार इस ग्रन्थ में लोकायत दर्शन की मान्यता के विरुद्ध चार बातों की स्थापना की गयी है।
आत्मा की स्वतन्त्र सत्ता को स्वीकार करना आत्मवाद है। संसार को यथार्थ और आत्मा को लोक में जन्म-मरण करने वाला समझना लोकवाद है। आत्मा को शुभाशुभ कर्मों का कर्ता, भोक्ता और नित्य परिणामी मानना क्रियावाद
आचारांग में लोकसंज्ञा का त्याग करके इन सिद्धान्तों में विश्वास करने का भी निर्देश दिया गया है। ज्ञातव्य है कि आचारांग में लोकायत या चार्वाक
362 / सूत्रकृतांग सूत्र का दार्शनिक अध्ययन
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