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सूत्रकृतांग सूत्र में वर्णित वादों का
तुलनात्मक अध्ययन
1. प्राचीन जैनागमों में वर्णित पंचमहाभूतवाद
तथा तज्जीव-तच्छरीरवाद की समीक्षा सूत्रकृतांग में वर्णित पंचमहाभूतवाद तथा तज्जीव-तच्छरीरवाद को वृत्तिकार शीलांक ने लोकायत (चार्वाक) दर्शन का अभिमत कहा है। लोकायत दर्शन का भारतीय दार्शनिक चिन्तन में भौतिकवादी दर्शन के रूप में विशिष्ट स्थान है। भारतीय चिन्तन में भौतिकवादी जीवन दृष्टि की उपस्थिति के प्रमाण अतिप्राचीन काल से ही उपलब्ध होते है। भारत की प्रत्येक धार्मिक एवं दार्शनिक चिन्तनधारा में उसकी समालोचना की गयी है। जैन धर्म एवं दर्शन के ग्रन्थों में भी भौतिकवादी जीवनदृष्टि का प्रतिपादन एवं समीक्षा अतिप्राचीन काल से ही मिलने लगती है।
प्राचीनतम आगम साहित्य में मुख्यतया आचारांग, सूत्रकृतांग, उत्तराध्ययन और ऋषिभाषित को समाहित किया जा सकता है। ये सभी ग्रन्थ ई.पू. पांचवी शती से लेकर ई.पू. तीसरी शती से बीच निर्मित हुए है, ऐसा माना जाता है।'
प्रस्तुत विवेचना में मुख्य रूप से पंचमहाभूतवाद एवं तज्जीव-तच्छरीरवाद की अवधारणा, उसके द्वारा किये गये खण्डनों के प्रस्तुतीकरण के साथ-साथ इन आगामों में उपलब्ध समीक्षाएँ भी प्रस्तुत की गयी है।
ऋषिभाषित में (ई. पू. 4थी सदी) भौतिकवादी जीवन दृष्टि का प्रस्तुतीकरण बहुत ही विशिष्ट प्रकार का है। उसमें जो दण्डोक्कल, रज्जूक्कल, स्तेनोक्कल, देसोक्कल, सव्वोक्कल के नाम से भौतिकवादियों के पाँच प्रकारों का उल्लेख
सूत्रकृतांग सूत्र में वर्णित वादों का तुलनात्मक अध्ययन / 361
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