________________
दर्शन का निर्देश लोक संज्ञा के रूप में हुआ है। यद्यपि इनमें इन मान्यताओं की समालोचना की गयी है किन्तु उसकी कोई तार्किक भूमिका प्रस्तुत नहीं की गयी है।
सूत्रकृतांग के प्रथम तथा द्वितीय श्रुतस्कन्ध के प्रथम अध्याय में हमें पंचमहाभूतवाद तथा तज्जीव-तच्छरीरवाद के उल्लेख प्राप्त होते है, जिसका विस्तृत वर्णन हम पूर्व अध्याय में कर ही चुके है। उत्तराध्ययन में सत्-असत् की प्रस्तुति
उत्तराध्ययन के चौदहवें अध्याय में चार्वाकों का असत् से सत् की उत्पत्ति का सिद्धान्त प्रस्तुत किया गया है, क्योंकि चार्वाकों का पंचमहाभूत से चेतना की उत्पत्ति का सिद्धान्त वस्तुत: असत् से सत् की उत्पत्ति का सिद्धान्त है। यद्यपि उत्तराध्ययन में असत्कार्यवाद का जो उदाहरण प्रस्तुत किया गया है, वह असत्कार्यवाद के पक्ष में न जाकर सत्कार्यवाद के पक्ष में ही जाता है। जैसेअरणि में अग्नि, दूध में घृत और तिल में तेल असत् होकर भी उत्पन्न होते है, उसी प्रकार शरीर में जीव भी असत् होकर ही उत्पन्न होता है और उस शरीर का नाश हो जाने पर वह भी नष्ट हो जाता है। चार्वाकों का यह तर्क सर्वथा अयुक्तिसंगत है। यदि असत् से सत् की उत्पत्ति होने लगे तब तो तिल से ही क्यों, बालु से भी तेल निकलना चाहिये परन्तु ऐसा कभी नहीं देखा जाता। अत: पंचभूतों से भी चैतन्य की उत्पत्ति नहीं हो सकती। आत्मा एक स्वतन्त्र तत्त्व है, जो न कभी जन्म लेता है, न कभी मृत्यु को प्राप्त होता है। ऋषिभाषित में प्रस्तुत तज्जीव-तच्छरीरवाद
ऋषिभासित सूत्र का 20वाँ उत्कल नामक सम्पूर्ण अध्ययन चार्वाक दर्शन की मान्यताओं के प्रस्तुतीकरण से युक्त है। चार्वाक दर्शन के तज्जीव-तच्छरीरवाद का प्रस्तुतीकरण इस ग्रन्थ में निम्नवत् हुआ है ..... 'पादतल से उपर और मस्तक के केशाग्र से नीचे तथा सम्पूर्ण शरीर की त्वचा पर्यन्त जीव आत्म पर्याय को प्राप्त हो जीवन जीता है। और इतना ही मात्र जीव है। जिस प्रकार बीज के भुन जाने पर उससे पुन: अंकुर की उत्पत्ति नहीं होती, उसी प्रकार शरीर के दग्ध हो जाने पर उससे पुन: जीव की उत्पत्ति नहीं होती । इसलिये जीवन इतना ही है अर्थात् शरीर की उत्पत्ति और विनाश पर्यन्त ही जीवन है। न परलोक है, न सुकृत-दुष्कृत कर्मों का फलविपाक है। जीव का पुनर्जन्म भी नहीं होता है। पुण्य
सूत्रकृतांग सूत्र में वर्णित वादों का तुलनात्मक अध्ययन / 363
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org