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________________ करते है। इन दोनों एकान्तिक मतों का निरास करने के लिये सूत्रकार ने 11वीं गाथा के चौथे चरण में 'आहंसु विज्जा चरणं पमोक्खं' का उल्लेख करते हुए ज्ञान और क्रिया दोनों के समन्वय की बात कही है।' चूर्णिकार ने इस तथ्य की पुष्टि में सिद्धसेन का एक श्लोक उद्धृत किया है। क्रियांच सज्ज्ञान वियोग निष्फलां क्रिया विहिनां च निबोध संपदम्। निरर्थका क्लेश समूह शान्तये त्वया शिवायाऽलिखितेव पद्धति:।। सदज्ञान के बिना क्रिया निष्फल है और क्रियाविहीन ज्ञानसम्पदा भी निष्फल है। आपने (महावीर ने) केवल ज्ञान या क्रिया को क्लेश समूह की शान्ति के लिये निरर्थक बताकर जगत को कल्याणकारी मार्ग बताया है। इसका आशय यह है कि एकान्त क्रिया से मोक्ष नहीं होता, इसके साथ सम्यग्ज्ञान होना आवश्यक है। ज्ञान रहित क्रिया मात्र से कोई कार्य सिद्ध नहीं होता। सभी क्रियाएँ ज्ञान के साथ फल देती है। दशवैकालिक सूत्र के 'पढमं नाणं तओ दया' की उक्ति इसी तथ्य का संकेत है। स्थानांग सूत्र में भी विद्या और चरण इन दो स्थानों से सम्पन्न अणागार को अनादि-अनन्त, प्रलंब मार्गवाले तथा चार अन्तवाले संसार रूपी कान्तार को पार करने वाला बताया गया है।' उत्तराध्ययन में मोक्ष के चार द्वार बताये गये है - ज्ञान, दर्शन, चारित्र तथा तप। इन्हें क्रमश: ज्ञान योग, भक्ति योग, आचार योग और तपोयोग कहा जा सकता है। प्रस्तुत सूत्र में मार्ग चतुष्टयी का संक्षेप है। विद्या में ज्ञान और दर्शन तथा चरण में चारित्र और तप समाविष्ट हो जाता है। उमास्वाति का प्रसिद्ध सूत्र 'सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्राणि मोक्षमार्गः' इन दोनों के आधार पर ही संचरित है। उपरोक्त विवेचन से स्पष्ट है कि ज्ञान निरपेक्ष क्रिया से अथवा क्रिया निरपेक्ष ज्ञान से मोक्ष नहीं होता इसलिये शास्त्रकार स्पष्ट कहते है कि तीर्थंकरों ने ज्ञान और क्रिया दोनों से मोक्ष कहा है। क्रियावाद के 180 भेद नियुक्तिकार ने क्रियावाद के 180 भेदों का उल्लेख किया है।'' चूर्णिकार तथा वृत्तिकार ने इसका विवरण इस प्रकार प्रस्तुत किया है- जीव, अजीव, पुण्य, समवशरण अध्ययन में प्रतिपादित चार वाद तथा 363 मत / 357 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003613
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra Ka Darshanik Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNilanjanashreeji
PublisherBhaiji Prakashan
Publication Year2005
Total Pages436
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Philosophy, & agam_related_other_literature
File Size18 MB
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