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पाप, आश्रव, संवर, निर्जरा, बंध और मोक्ष ये नौ तत्त्व है। स्वत: और परत: की अपेक्षा से इनके 1 8 भेद हुए। इन अठारह भेदों के नित्य और अनित्य की अपेक्षा छत्तीस भेद हुए। इनमें प्रत्येक के काल, नियति, स्वभाव, ईश्वर और आत्मा इन पाँचों की अपेक्षा से पाँच-पाँच भेद करने पर (36x5) 180 भेद हुए। इसकी चारणा इस प्रकार है - जीव स्व-रूप से काल, नियति, स्वभाव, ईश्वर और आत्मा की अपेक्षा नित्य है। ये नित्यपद के पाँच भेद हुए और इसी प्रकार अनित्य पद के भी पाँच भेद हुए। 10 भेद जीव के स्व-रूप से नित्य अनित्य की अपेक्षा से हुए। इसी प्रकार जीव के पर-रूप से नित्य तथा अनित्य की अपेक्षा से करने पर कुल 20 भेद हुए। शेष सभी तत्त्वों की इसी प्रकार संयोजना करनी चाहिये। इन सबका संकलन करने पर कुल 180 (20x9) भेद होते है।
आचार्य अकलंक ने क्रियावाद के कुछ आचार्यों का नामोल्लेख किया है - मरीचि कुमार, उलूक, कपिल, गार्ग्य, व्याघ्रभूति, वादलि, माठर, मौद्गलायन आदि।
सम्यक्रियावाद एवं उसके प्ररूपक - वृत्तिकार ने प्रस्तुत अध्ययन की 12वीं गाथा से 16वीं गाथा तक की वृत्ति में सम्यग्क्रियावाद एवं उसके मार्गदर्शक का निरूपण किया है। इनसे चार तथ्य फलित होते है - - 1. लोक शाश्वत भी है और अशाश्वत भी है। 2. चारों गतियों के जीव अपने-अपने कर्मों के अनुसार सुख-दु:ख
पाते है तथा स्वत: संसार में परिभ्रमण करते है- काल, ईश्वर से प्रेरित होकर नहीं। संसार-सागर स्वयंभूरमण समुद्र के समान दुस्तीर्ण है। तीर्थंकर लोकचक्षु है, धर्म के नायक है, सम्यगक्रियावाद के प्ररूपक है, उन्होंने संसार और मोक्ष का यथार्थ स्वरूप बताकर सम्यगक्रियावाद की प्ररूपणा की है। अथवा जीव, अजीव आदि नौ तत्त्वों के अस्तित्व-नास्तित्व की काल आदि पाँच कारणों के समवसरण (समन्वय) की सापेक्ष प्ररूपणा की है, इसलिये वे इस
भाव समवसरण के प्ररूपक है। अज्ञानी मनुष्य कर्म से कर्म को क्षीण नहीं करते है। मेधावी लोभ और मद से अतीत होते है। सन्तोषी मनुष्य पाप नहीं करता।
वे तीर्थकर लोक के अतीत, वर्तमान और भविष्य को यथार्थ रूप में जानते 358 / सूत्रकृतांग सूत्र का दार्शनिक अध्ययन
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