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निरूपण है। इस अवस्था में क्रियावाद का अर्थ केवल आत्मकर्तृत्ववाद ही होगा।
सूत्रकृतांग में क्रियावाद का प्रतिपादन इस प्रकार किया गया है -
तीर्थंकर लोक को भलीभाँति जानकर श्रमणों और ब्राह्मणों को यह यथार्थ बताते है- दु:ख स्वयंकृत है, किसी दूसरे के द्वारा कृत नहीं है। (दु:ख की) मुक्ति. विद्या और आचरण के द्वारा होती है।
वे तीर्थंकर लोक के चक्ष और नायक है। वे जनता के लिये हितकर मार्ग का अनुशासन करते है। उन्होंने वैसे-वैसे (आसक्ति के अनुरूप) लोक को शाश्वत कहा है। हे मानव! उसमें यह प्रजा संप्रगाढ़-आसक्त है। __जो राक्षस, यमलोक के देव (नारक),असुर और गन्धर्वनिकाय के देव है, जो आकाशगामी (पक्षी आदि) हैं, जो पृथ्वी के आश्रित प्राणी है, वे सब बारबार विपर्यास (जन्म-मरण) को प्राप्त होते है।
. जिसे अपार सलिल का प्रवाह कहा जाता है, उसे दुर्मोक्ष गहन संसार जानो, जिसमें विषय और अँगना दोनों प्रमादों से प्रमत्त होकर लोक में अनुसंचरण करते है।
चूर्णिकार ने प्रस्तुत अध्ययन के प्रथम श्लोक की व्याख्या में क्रियावाद के बारे संक्षिप्त जानकारी प्रस्तुत की है। क्रियावादी जीव का अस्तित्व मानते है। उसका अस्तित्व मानने पर भी वे उसके स्वरूप के विषय में एक मत नहीं है। कुछ जीव को सर्वव्यापी मानते है, कुछ जीव को सर्वव्यापी नहीं मानते है। कुछ मूर्त मानते है और कुछ अमूर्त। कुछ उसे अंगुष्ठ जितना मानते है और कुछ उसे श्यामाकतन्दुल जितना। कुछ उसे हृदय में अधिष्ठित प्रदीप की शिखा जैसा मानते है। क्रियावादी कर्म और कर्मफल भी मानते है।' . एकान्त क्रियावादी वे है, जो एकान्त रूप से जीव आदि पदार्थों का अस्तित्व मानते है तथा ज्ञानरहित केवल दीक्षा आदि से ही मोक्ष प्राप्ति मानते है। वे कहते है, माता-पिता आदि सब है, शुभ कर्म का फल भी मिलता है किन्तु मिलता केवल क्रिया से ही है। जीव जैसी-2 क्रियाएँ करता है, तदनुसार उसे स्वर्ग, नरक, सुख-दु:ख आदि के रूप में कर्म फल मिलता है। संसार में सुख-दु:ख आदि जो कुछ भी होता है, वह सब अपना किया हुआ ही होता है, कान, ईश्वर आदि दूसरों के द्वारा किया हुआ नहीं होता।
सांख्य आदि केवल ज्ञान से ही मुक्ति मानने का कथन करते है। अत: वे ज्ञानवादी है। अज्ञानवादी केवल क्रिया (शील-आचार) से मुक्ति का कथन 356 / सूत्रकृतांग सूत्र का दार्शनिक अध्ययन
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