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उपपज्जवेदनीय अपरापरियवेदनीयं अहोसिकम्मञ्चेति वही पृ. - 206 वही पृ. - 207 तत्वार्थवार्तिक - भाग - 2, 8/1, पृ. - 562 (अ) सूत्रकृतांग नियुक्ति गाथा - 199 अकिरियाणं च होति चुलसीति। (ब) सूत्रकृतांग चूर्णि पृ. - 206 (स) सूत्रकृतांग वृत्ति पत्र - 209 वही - 215 वही - 215 : माता-पितरौ हत्या बुद्धशरीरे च रूधिरमुत्पात्य।
अर्हद्वधं च कृत्वा, स्तूपं भित्वा च आवीचिनरकं च यान्ति॥ वही - 215-216 वही - 217 (अ) वही - 218-219 (च) सूत्रकृतांग अमरसुखबोधिनी व्याख्या, प्र.श्रु. - पृ. 867-870
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4. क्रियावाद समवशरण अध्ययन में चतुर्थ वाद के रूप में क्रियावाद का विश्लेषण है। जो दर्शन आत्मा, लोक, गति - अनागति, जन्म-मरण, शाश्वत-अशाश्वत, च्यवन - उपपात, आश्रव, संवर, निर्जरा को मानता है, वह क्रियावादी है।
नियुक्तिकार ने अस्ति के आधार पर क्रियावाद का निरूपण किया है।' क्रियावाद की विस्तृत व्याख्या दशाश्रुतस्कन्ध में मिलती है। वहाँ उसके चार अर्थ फलित होते है
(1) अस्तित्ववाद - आत्मा और लोक के अस्तित्व की स्वीकृति। (2) सम्यग्वाद - नित्य और अनित्य दोनों धर्मों की स्वीकृति - स्याद्वाद,
अनेकान्तवाद। (3) पुनर्जन्मवाद। (4) आत्मकर्तृत्ववाद।
क्रियावाद में उन सभी धर्मवादों को सम्मिलित किया गया है, जो आत्मा आदि पदार्थों के अस्तित्व में विश्वास करते थे और आत्मा के कर्तृत्व को स्वीकार करते थे। ___ आचारांग सूत्र में चार वादों का उल्लेख है - आत्मवाद, लोकवाद, कर्मवाद और क्रियावाद।' प्रस्तुत सन्दर्भ में आत्मवाद, लोकवाद और कर्मवाद का स्वतन्त्र
समवशरण अध्ययन में प्रतिपादित चार वाद तथा 363 मत / 355
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