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________________ रहित है। सर्वशून्यतावादी दृष्टि से ही मुक्ति प्राप्त होती है - ऐसा मानने वाले सर्वशून्यतावादी समस्त पदार्थों को असत् कहते है । इसे वे युक्ति से सिद्ध करते है परन्तु वह युक्ति भी यदि असत् है, तो किसके बल पर आत्मा की असत्ता सिद्ध की जायेगी ? यदि मुक्ति को माने तो सभी पदार्थ सत्य है । सर्वशून्यतावादियों के द्वारा सूर्य के उदय अस्तं का, चन्द्र के वृद्धि - हास का, जल एवं वायु की गति का किया गया प्रत्यक्ष प्रमाण से विरूद्ध है । जैसे जन्मान्ध पुरुष या बाद में दृष्टि से रहित हुआ पुरुष दीपक, मशाल आदि के प्रकाश में भी घटपटादि पदार्थों को देख नहीं सकता, उसी प्रकार अक्रियावादी विद्यमान घटपटादि पदार्थों को नहीं देख सकता क्योंकि उसकी प्रज्ञा ज्ञानावरणीयादि कर्मों से ढकी रहती है। समस्त अँधेरे को मिटाने वाले, कमल समूह को विकसित करने वाले, प्रतिदिन उदय - अस्त एवं गति करते हुए सूर्य को तो सारा जगत प्रत्यक्ष देखता है। चन्द्रमा भी शुक्ल कृष्ण पक्ष में बढ़ता-घटता देखा जाता है। नदियाँ वर्षाऋतु में जल प्रवाह में बहती हुई प्रत्यक्ष दृष्टिगोचर होती है। वृक्ष, पत्तों के कम्पन आदि के द्वारा वायु के बहने चलने का अनुमान होता है । अक्रियावादी, जो समस्त वस्तुओं को माया या इन्द्र जाल के समान मिथ्या बताते है, यह अयुक्तिसंगत है। क्योंकि समस्त पदार्थों का अभाव मानने पर, अमायारूप किसी भी सत्य वस्तु के न होने पर माया का भी अभाव होगा । तथा माया का जो कथन करता है तथा जिसके प्रति कथन करता है, इन दोनों का भी अभाव होने से माया का कथन भी असिद्ध ही होगा । यहाँ एक और बात विचारणीय है कि इन्द्रजाल का प्रयोग भी तभी किया जाता है, जब जगत में सच्ची वस्तु हो । अतः इन्द्रजाल अभावात्मक नहीं कहा जा सकता। दो चन्द्रमाओं की प्रतीति भी तभी होती है, जब दो चन्द्रमा का प्रतिभास कराने वाले एक चन्द्रमा का सद्भाव हो। अगर सर्वशून्य हो तो चन्द्रमा की प्रतीति कैसे होगी ? अतः किसी भी वस्तु का अत्यन्त तुच्छरूप अभाव - अत्यन्ताभाव नहीं है। शशविषाण, कूर्मरोम तथा गगनारविंद आदि में भी उनके समासपदवाच्य पदार्थ का अभाव है, प्रत्येकपदवाच्य पदार्थ का अभाव नहीं क्योंकि जगत में शश (खरगोश) भी है और विषाण (सींग) भी है। शश के मस्तक पर विषाण मात्र का यहाँ निषेध है परन्तु वस्तु का आत्यन्तिक अभाव नहीं । इस प्रकार अस्ति आदि क्रिया होने पर भी बुद्धिहीन परतीर्थी अक्रियावाद का आश्रय लेते है ।" 14 समवशरण अध्ययन में प्रतिपादित चार वाद तथा 363 मत / 353 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003613
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra Ka Darshanik Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNilanjanashreeji
PublisherBhaiji Prakashan
Publication Year2005
Total Pages436
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Philosophy, & agam_related_other_literature
File Size18 MB
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