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________________ भी सम्भव नहीं है फिर भी बौद्ध शासन में छह गतियाँ मानी गयी है। जब गमन करने वाला आत्मा ही नहीं है, तब उसकी गतियाँ कैसी ? फिर बौद्धों द्वारा मान्य ज्ञान सन्तान भी प्रत्येक ज्ञान से भिन्न नहीं है। अपितु वह आरोपित है तथा प्रत्येक ज्ञान सन्तान भी क्षण विध्वंसी होने से स्थिर नहीं है। इसलिये क्रिया का अभाव होने के कारण बौद्ध दर्शन में अनेकों गतियों का होना कदापि सम्भव नहीं है। तथा बौद्धों के सभी आगमों में कर्म का अबन्धन माना गया है। फिर भी बुद्ध का 500 बार जन्म ग्रहण करना बताते है। जब कर्म बंधन नहीं होगा तो जन्म ग्रहण कैसे होगा ? बौद्ध ग्रन्थगत एक श्लोक में बताया गया है - मातापिता को मारकर एवं बुद्ध के शरीर से रक्त निकालकर अर्हदवध करके तथा धर्मस्तूप को नष्ट करने वाला मनुष्य आविची नरक में जाता है। यह भी कर्मबन्धन के बिना कैसे सम्भव है ? जब सर्वशून्य है तो शास्त्रों का निर्माण युक्ति संगत कैसे हो सकता है ? यदि कर्मबंधनदायी नहीं है तो प्राणियों में जन्म, जरा, मृत्यु, रोग, शोक, उत्तम, मध्यम, अधम कैसे हो सकते है ? इसके अतिरिक्त कर्म का नाना प्रकार का फल प्रत्यक्ष दृष्टिगोचर होता है। इससे सिद्ध है कि जीव अवश्य है और वह कर्ता है, कर्म फल का भोक्ता और कर्मयुक्त है, फिर भी बौद्ध सर्वशून्यवाद को मानते है। इस प्रकार वे स्पष्ट रूप से मिश्रपक्ष का सहारा लेते है। अर्थात् एक ओर वे कर्मों के पृथक्-पृथक् फल को मानते है, दूसरी ओर सर्वशून्यवाद के अनुसार सभी पदार्थों का नास्तित्व बताते है। सांख्य अक्रियावादी आत्मा को सर्वव्यापी मानकर उसे क्रिया रहित स्वीकार करके भी जब प्रकृति के वियोग से उसकी मुक्ति मानते हैं, तब वे अपनी ही बात का खण्डन करते हुए आत्मा का बंध और मोक्ष मानते है क्योंकि मोक्ष उसी का होगा, जिसका बंधन होता हो। तब उनके कथनानुसार ही आत्मा का क्रियावान होना भी स्वीकृत हो जाता है। क्योंकि क्रिया के बिना बंध-मोक्ष कदापि सम्भव नहीं है। अत: सांख्य भी मिश्रपक्षाश्रयी है, जो आत्मा को निष्क्रिय सिद्ध करते हुये अपने ही वचन से क्रियावान् कह बैठते हैं। अक्रियावादी लोकायतिक, बौद्ध तथा सांख्य वस्तुत: वस्तु के यथार्थ स्वरूप से अपरिचित है। उनके अनुसार इस संसार में पृथ्वी, अप, तेज, वायु ये चार धातु या भूत है। इनसे पृथक सुख-दु:ख का कोई भोक्ता आत्मा नहीं है। तथा ये पदार्थ भी विचार न करने से सत्य से प्रतीत होते है। परन्तु ये सभी पदार्थ स्वप्न, इन्द्रजाल, दो चन्द्रमा के भाँति प्रतिभास रूप है, क्षणिक है, आत्मा से 352 / सूत्रकृतांग सूत्र का दार्शनिक अध्ययन Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003613
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra Ka Darshanik Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNilanjanashreeji
PublisherBhaiji Prakashan
Publication Year2005
Total Pages436
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Philosophy, & agam_related_other_literature
File Size18 MB
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