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यहाँ क्रियावाद और अक्रियावाद का चिन्तन आत्मा को केन्द्र में रखकर किया गया है। आत्मा है, वह पुनर्भवगामी है । वह कर्म का कर्त्ता तथा कर्म फल को भोक्ता है, उसका निर्वाण होता है । यह क्रियावाद का पूर्ण लक्षण है। इसमें से एक अंश का भी अस्वीकार करने वाला अक्रियावादी होता है। यहाँ एकान्त अक्रियावादी तीन है मुख्यतया
1. लोकायतिक, 2. बौद्ध, 3. सांख्य ।
1. अक्रियावादी लोकायतिक - इस मत के अनुसार आत्मा है ही नहीं, तो उसकी क्रिया कैसे हो सकती है और उस क्रिया से उत्पन्न कर्मबंध भी कैसे हो सकता है ? जैसे- लोक व्यवहार में मुट्ठी बांधना और खोलना केवल आरोप है । वस्तुतः कोई रस्सी से बांधी या खोली नहीं जाती । इसी प्रकार लोकायतिक मत में उपचार मात्र से आत्मा में बद्ध और मुक्त का व्यवहार जाना जाता है। 2. अक्रियावादी बौद्ध - बौद्धों की पाँच स्कन्ध की मान्यता भी आरोप मात्र से है, परमार्थ रूप से नहीं। उनका मन्तव्य है कि कोई भी पदार्थ विज्ञान के द्वारा अपने स्वरूप को प्रकट करने में समर्थ नहीं है। क्योंकि अवयवी पदार्थ तत्त्व और अतत्त्व इन दोनों भेदों के द्वारा विचार करने पर पूरा समझ में नहीं आता। इसी तरह अवयव भी परमाणु पर्यन्त विचार करने पर अत्यन्त सूक्ष्म होने के कारण आकार रहित होने से स्वरूप को धारण नहीं करते। अतः अवयवों का ज्ञान भी अशक्य है । ऐसी दशा में कोई भी पदार्थ ज्ञान के द्वारा पूरा-पूरा नहीं जाना जा सकता ।
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उक्त सिद्धान्त मानने वाले बौद्ध मत में भूत और भविष्य के साथ वर्तमान क्षण का कोई सम्बन्ध नहीं होने से कोई क्रिया नहीं होती । और क्रिया के अभाव मेंक्रियाजनित कर्मबंध भी नहीं होता । तात्पर्य यह है कि आने वाला (अनागत) क्षण अभी आया ही नहीं है और भूतकाल विद्यमान नहीं है तथा पहले और पीछे के क्षणों में वर्तमान क्रिया का कोई सम्बन्ध नहीं है। क्योंकि नाश हुए काल के साथ वर्तमान का सम्बन्ध नहीं होता । अतः क्रिया के साथ सम्बन्ध न होने से उसके द्वारा कर्मबंध नहीं होता। इस प्रकार बौद्ध अक्रियावादी है ।
3. अक्रियावादी सांख्य (वैशेषिक ) - आत्मा के सर्वव्यापी होने से उसे क्रिया रहित मानने वाले सांख्य भी अक्रियावादी है। सांख्य दर्शन के अनुसार क्रिया का मूल प्रकृति है। पुरुष (आत्मा) कर्म का कर्त्ता नहीं है। पुरुष के अकर्तृत्व की दृष्टि से सांख्य को अक्रियाबाद की कोटि में परिगणित किया गया है। वैशेषिक
350 / सूत्रकृतांग सूत्र का दार्शनिक अध्ययन
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