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________________ ( पकुधकात्यायन के अनुसार) सूर्य न उगता है और न अस्त होता है । चन्द्रमा न घटता है और न बढ़ता है। नदियाँ बहती नहीं है । पवन चलता नहीं है । क्योंकि यह सम्पूर्ण लोक वन्ध्य (शून्य), नित्य (अनिर्मित) है । जगत में बहुत लोग ज्योतिषशास्त्र, स्वप्न शास्त्र, लक्षण शास्त्र, निमित्त शास्त्र, शरीर, तिल आदि का फल बनाने वाला शास्त्र, तथा उल्कापात, दिग्दाह आदि का फल बताने वाले शास्त्र, इन अष्टांग निमित्त शास्त्रों को पढ़कर भविष्य की बातों को जान लेते है किन्तु अक्रियावादी विद्या से परिमुक्त होने को ही कल्याणकारक कहते है । एकपाक्षिक चूर्णिकार के अनुसार अक्रियावादी (लोकायतिक, बौद्ध, सांख्य) दर्शन दो प्रकार के धर्म का प्रतिपादन करते हैं- एकपाक्षिक तथा द्विपाक्षिक । एकपाक्षिक का अभिप्राय यह है कि उसमें क्रिया मात्र होती है, कर्म का चय अर्थात् बंध नहीं होता । एकपाक्षिक कर्म के चार प्रकार है - अविज्ञोपचित, परिज्ञोपचित, ईयापथ और स्वप्नान्तिक - जो इहभव वेद्य होते हैं । द्विपाक्षिक द्विपाक्षिक कर्म वह होता है, जिसमें चार प्रकार के योग होते है- 1. सत्व, 2. सत्वसंज्ञा, 3. मारने का संकल्प, 4. प्राण वियोजन। इससे होने वाला कर्मबंध द्विपाक्षिक होता है । इस जन्म में और पर जन्म में भी भोगना पड़ता है। जैसेचोर यहाँ चोरी करते है, उन्हें इस भव में दण्ड, कारावास, वध, बन्धन आदि भोगने पड़ते है, शेष परिणाम उन्हें अगले जन्म - नरक आदि में भोगने पड़ते है । ' इहभव वेद्य और परभव वेद्य कर्मो के आधार पर बौद्ध एकपाक्षिक भी है और द्विपाक्षिक भी। उसकी मान्यता है कि क्रियाचित्त से जो कर्म किया जाता है, उससे कर्मो का चय-बंध नहीं होता । वह इहभव वेद्य कर्म है । कुशलचित्त और अकुशलचित्त से जो कर्म किया जाता है, उसका चय होता है । विपाक या फलदान के आधार पर वे 4 प्रकार के कर्म मानते है - 1. दिधम्मवेदनीय - इसी शरीर में भुगते जाने वाले कर्म । 2. उपपज्जवेदनीय परभव में भुगते जाने वाले कर्म । 3. अपरापरियवेदनीय जन्म-जन्मान्तर में भुगते जाने वाले कर्म I 4. आहोसिकम्म अविपाकी कर्म । वह कर्म, जिसका कोई फल नहीं होता । " समवशरण अध्ययन में प्रतिपादित चार वाद तथा 363 मत / 349 Jain Education International - - - For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003613
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra Ka Darshanik Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNilanjanashreeji
PublisherBhaiji Prakashan
Publication Year2005
Total Pages436
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Philosophy, & agam_related_other_literature
File Size18 MB
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