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________________ और मीमांसा करता है। हम विनम्र धर्म की प्ररुपणा करते है। मित्र और शत्रु को समान मानते है। हम समस्त प्रव्रजित व्यक्तियों तथा देवों को प्रणाम करते है। जैसे दूसरे मतावलम्बी परस्पर विरोध रखते है, हम वैसा नहीं करते। हम प्रव्रजित होते ही इन्द्र हो या स्कन्ध, जब ऊँचे को देखते है तो ऊँचा प्रणाम करते है, नीचे को देखते है तो नीचा प्रणाम करते है। जो स्थान या ऐश्वर्य से ऊँचा है, जैसे - राजा, सेठ आदि उनको देखते ही हम ऊँचा प्रणाम करते है और जो क्षुद्र आदि है, जैसे - कुत्ता आदि, उनको नीचा प्रणाम करते है। हम भूमि पर सिर रखकर नमन करते है। विनयवादियों के उक्त मन्तव्य से यह स्पष्ट होता है कि विनयवादी अपनी सद्-असद विवेकशालिनी बुद्धि का उपयोग नहीं करते है। वे प्रत्येक का विनय (जो वास्तव में विनय नहीं, चापलूसी, खुशामद, चाटुकारिता या मुखमंगलता होती है) करने की धुन में अच्छे-बुरे, सज्जन-दुर्जन, धर्मी-अधर्मी, सुबुद्धिदुर्बुद्धि, सुज्ञानी-अज्ञानी सभी को एक सरीखा मानकर सबको वन्दन-नमन, मानसम्मान आदि देते है। सत्यासत्य की परख न होने के कारण जो व्यक्ति जैसा समझा देता है, उसे वैसा ही मानकर जो सत्य है, उसे असत्य और जो असत्य है, उसे सत्य कह देते है। जो प्राणियों का हित करने वाला वस्तु के यथार्थ स्वरूप का निरूपण है, वह सत्य है अथवा मोक्ष या संयम सत्य है। परन्तु विनयवादी इसे असत्य कहते है। सम्यग्ज्ञान-दर्शन-चारित्र मोक्ष का सत्य मार्ग है, परन्तु विनयवादी इसे असत्य कहते है। केवल विनय करने से मोक्ष की प्राप्ति नहीं होती। तथापि विनयवादी केवल विनय से मोक्ष प्राप्ति मानकर असत्य प्ररुपणा करते है। वृत्तिकार ने भी विनय का अर्थ विनम्रता ही किया है किन्तु यह अर्थ विचारणीय है। यहाँ विनय का अर्थ आचार होना चाहिये। ज्ञानवादी जैसे ज्ञान के द्वारा ही सिद्धि मानते थे, वैसे ही आचार वादी केवल आचार पर ही बल देते थे। उनका उद्घोष था- आचारः प्रथमो धर्मः । ज्ञानवाद और आचारवाद दोनों एकांगी होने के कारण मिथ्यादृष्टि की कोटि में आते है। प्राचीन साहित्य में विनय का आचार अर्थ में बहुलता से प्रयोग हुआ है। उत्तराध्ययन के प्रथम श्लोक में निर्दिष्ट ‘विणयं पाउकरिस्सामि' पद का भी यही अर्थ अभिप्रेत है। ज्ञाताधर्म कथा सूत्र में जैन धर्म को विनयमूलक धर्म बताया गया है। थावच्चापुत्र ने शुकदेव से कहा- मेरे धर्म का मूल विनय है। समवशरण अध्ययन में प्रतिपादित चार वाद तथा 363 मत / 345 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003613
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra Ka Darshanik Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNilanjanashreeji
PublisherBhaiji Prakashan
Publication Year2005
Total Pages436
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Philosophy, & agam_related_other_literature
File Size18 MB
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