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________________ सर्वज्ञसिद्धि के कारण अज्ञानवाद का खण्डन जैनदर्शन में प्रारम्भ से ही सर्वज्ञता और धर्मज्ञता के विषय में कोई मतभेद नहीं रहा है। उसके अनुसार प्रत्येक आत्मा सर्वज्ञ हो सकती है, क्योंकि सर्वज्ञता उसका स्वभाव है। स्वभाव अनुभूति का विषय होता है, तर्क या युक्ति का विषय नहीं । किन्तु विभावज्ञान से अभिभूत चेतनवाले अज्ञानवादी सर्वज्ञ का निषेध करते है। अज्ञानवादियों का यह कथन है कि सर्वज्ञ हो तो भी अल्पज्ञ द्वारा जाना नहीं जा सकता । यद्यपि सराग वीतराग की सी चेष्टा करते देखे जाते है और वीतराग सराग की सी प्रवृत्ति करते नजर आते है, इसलिये दूसरे की मनोवृत्ति अल्पज्ञ द्वारा जानी नहीं जा सकती, इस तरह प्रत्यक्ष से सर्वज्ञ की उपलब्धि न होने पर भी सर्वज्ञ के अस्तित्व से इन्कार नहीं किया जा सकता, क्योंकि सम्भव और अनुमान प्रमाण से सर्वज्ञ की सिद्धि होती है । जैसे- अज्ञानी की अपेक्षा व्याकरण शास्त्री या सुशिक्षित मनुष्य अधिक जानता- समझता है, इसी तरह ध्यान, समाधि, ज्ञान-साधना आदि के विशिष्ट अभ्यास करने से उत्तरोत्तर ज्ञान वृद्धि होने से कोई समस्त पदार्थों का ज्ञाता सर्वज्ञ भी होता है। आचार्य हेमचन्द्र ने भी सर्वज्ञसिद्धि में यही युक्ति प्रस्तुत की है। 2" सर्वज्ञ नहीं हो सकता, ऐसा कोई सर्वज्ञता का बाधक प्रमाण नहीं है । क्योंकि अल्पज्ञ पुरुष प्रत्यक्ष प्रमाण से सर्वज्ञ का अभाव सिद्ध नहीं कर सकता। अनुमान प्रमाण से भी सर्वज्ञाभाव सिद्ध नहीं होता क्योंकि सर्वज्ञ के अभाव के साथ अव्यभिचारी कोई हेतु नहीं है । सर्वज्ञाभाव के साथ किसी का सादृश्य सिद्ध न होने से उपमान प्रमाण से भी सर्वज्ञाभाव सिद्ध नहीं होता । अर्थापत्ति प्रमाण से भी सर्वज्ञाभाव सिद्ध नहीं होता, क्योंकि अर्थापत्ति प्रमाण की प्रत्यक्षादिपूर्वक ही प्रवृत्ति होती है और प्रत्यक्षादि प्रमाणों से सर्वज्ञ के अभाव की सिद्धि नहीं होती क्योंकि सर्वज्ञ का अस्तित्व बताने वाले आगम विद्यमान है। स्थूलदर्शी पुरुष का ज्ञान सर्वज्ञ तक नहीं पहुँचता, इस कारण भी सर्वज्ञ का अभाव नहीं कहा जा सकता, क्योंकि उसका ज्ञान व्यापक नहीं है । यदि कोई अव्यापक पदार्थ किसी पदार्थ के पास नहीं पहुँचे तो इससे पदार्थ का अभाव सिद्ध नहीं हो सकता है, इस प्रकार बाधक प्रमाणों का अभाव होने से एवं साधक प्रमाणों का सदभाव होने से भी सर्वज्ञ की सिद्धि हो जाती है । 30 फिर सर्वज्ञ प्रणीत आगमों को मानने वाले सभी एकमत से आत्मा को स्वशरीरव्यापी मानते है क्योंकि आत्मा का गुण चैतन्य सम्पूर्ण शरीर, किन्तु स्वशरीर 342 / सूत्रकृतांग सूत्र का दार्शनिक अध्ययन Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003613
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra Ka Darshanik Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNilanjanashreeji
PublisherBhaiji Prakashan
Publication Year2005
Total Pages436
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Philosophy, & agam_related_other_literature
File Size18 MB
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