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________________ लेते है। वे अज्ञान को कल्याणकारी सिद्ध करने हेतु अनुमान आदि प्रमाण तथा तर्क, युक्ति आदि का सहारा लेते है, यह ‘वदतो व्याघात' जैसी बात है। अज्ञान का अर्थ दो प्रकार के नञ् समास द्वारा स्पष्ट किया जा सकता है। पर्युदासन समास सदृश ग्राही होता है जबकि प्रसज्यनञ् समास सर्वथा निषेध करता है। अगर पयुर्दासनञ् समास के अनुसार अज्ञान का अर्थ किया जाये तो एक ज्ञान से भिन्न, उसके सदृश दूसरा ज्ञान होगा। इस स्थिति में ज्ञान को कल्याण का साधन मान लेने से अज्ञानवाद कहाँ सिद्ध हुआ ? प्रसज्य नञ् समास के अनुसार अज्ञान का अर्थ होता है - ज्ञान का निषेध या अभाव । यहाँ ज्ञानाभाव अभाव रूप होने से तुच्छ, रूप रहित एवं सर्वशक्ति रहित होने से कल्याणकर कैसे सिद्ध हो सकता है ? इस प्रकार प्रसज्यवृत्ति से अज्ञान का अर्थ किया जाय तो वह प्रत्यक्ष विरूद्ध है, क्योंकि सम्यग्ज्ञान के द्वारा पदार्थ के स्वरूप को जानकर प्रवृत्ति करने वाला कार्यार्थी पुरुष अपने कार्य को सिद्ध करता हुआ प्रत्यक्ष देखा जाता है। अत: ज्ञान की महत्ता को झुठलाया नहीं जा सकता। अज्ञानवादियों का यह कथन कि सभी ज्ञानवादी पदार्थ का स्वरूप परस्पर विरूद्ध बताते है, जैसे कोई आत्मा को सर्वव्यापी, कोई शरीरव्यापी, कोई हृदय स्थित, कोई ललाट स्थित तो कोई अँगूठे के पर्व के तुल्य मानते है। कोई उसे नित्य और अमर्त्त, तो कोई उसे अनित्य और मूर्त कहते है। इस प्रकार के विरोधी कथन में किसे सही और यथार्थ माना जाए। जगत् में कोई सर्वज्ञ भी नहीं, जिसका कथन प्रमाण माना जाये। फिर ज्ञान अहंकार को भी उत्पन्न करता है, वाद-विवाद और वितण्डावाद का भी सर्जन करता है। इससे दारूण कर्मबंध होता है। अत: अज्ञान ही साध्य है। अज्ञानवादियों के द्वारा इस प्रकार की मीमांसा या विचार-चर्चा करना उचित नहीं है। क्योंकि ऐसे पर्यालोचनात्मक विचार भी तो ज्ञान रूप ही है। वे स्वयं जब अज्ञानवाद के अनुशासन में नहीं चल सकते, तब दूसरों को अज्ञानवाद सिद्धान्त के अनुशासन में कैसे चलायेंगे ? साथ ही, जब वे स्वयं अज्ञानी है, तो अपने शिक्षार्थियों को अज्ञानवाद की शिक्षा कैसे दे सकेंगे क्योंकि अज्ञानवाद की शिक्षा भी तो ज्ञान द्वारा ही दी जायेगी। अत: चुप रहने की साधना में ही अज्ञानवाद है, क्योंकि अज्ञता का आभूषण मौन है। समवशरण अध्ययन में प्रतिपादित चार वाद तथा 363 मत / 341 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003613
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra Ka Darshanik Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNilanjanashreeji
PublisherBhaiji Prakashan
Publication Year2005
Total Pages436
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Philosophy, & agam_related_other_literature
File Size18 MB
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