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भाषा की विशिष्ट शैली का एक रूप रहा है, जैसा कि मज्झिमनिकाय के महाराहुलोवादसुत्त के अवतरण से विदित होता है । 24 इसमें तेजो धातु के दोनों सुनिश्चित् भेदों की सूचना 'सिया' शब्द देता है, न कि उन भेदों का अनिश्चय, संशय या सम्भावना व्यक्त करता है। इसी तरह 'स्यात् अस्ति' के साथ लगा हुआ 'स्यात्' शब्द 'अस्ति' की स्थिति को निश्चित् अपेक्षा से तो दृढ़ करता ही है, साथ ही साथ अस्ति से भिन्न और भी अनेक धर्म वस्तु में है, पर वे विवक्षित न होने से इस समय गौण है, इस सापेक्ष स्थिति को भी बताता है । भगवान महावीर से पूछा गया
भन्ते । द्विप्रदेशी स्कन्ध आत्मा है ? अनात्मा है ? या अवक्तव्य है ? भगवान महावीर ने उत्तर दिया
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द्विप्रदेशी स्कन्ध स्यात् आत्मा है, स्यात् आत्मा नहीं है, स्यात् अवक्तव्य है । भन्ते ! यह कैसे ?
गौतम ! द्विप्रदेशी स्कन्ध स्व की अपेक्षा से आत्मा है, पर की अपेक्षा से आत्मा नहीं है और उभय की अपेक्षा से अवक्तव्य है । 25
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इसी प्रकार भगवती में आये हुए पुद्गल स्कन्धों की चर्चा के प्रसंग में स्याद्वाद के सातों ही भंग फलित होते है । भगवती सूत्र दर्शन युग में लिखा हुआ कोई दार्शनिक ग्रन्थ नहीं है । यह महावीरकालीन आगम सूत्र है। इससे यह ज्ञात होता है कि स्याद्वाद को संजय वेलट्ठिपुत्त के सिद्धान्त से उधार लेने की बात सर्वथा आधार शून्य है ।
संजय वेलट्ठपुत्त के अतिरिक्त आचार्य अकलंक ने अज्ञानवादियों के कुछ अन्य आचार्यों का भी उल्लेख किया है - साकल्य, वाष्कल, कुथुमि, सात्यमुनि, नारायण, काठ, माध्यन्दिनी, मौद, पैप्पलाद, बादरायण आदि | 26
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अज्ञानवाद के विस्तृत विश्लेषण से स्पष्ट होता है कि अज्ञानवाद में दो प्रकार की विचारधाराएँ संकलित है कुछ अज्ञानवादी आत्मा के होने में सन्देह करते है और उनका मत है कि आत्मा है तो भी उसे जानने से क्या लाभ ? दूसरी विचारधारा के अनुसार ज्ञान सब समस्याओं का मूल है, अतः अज्ञान ही श्रेयस्कर है।
अज्ञानवाद की आलोचनात्मक समीक्षा
अज्ञानश्रेयोवादी अज्ञान को सर्वश्रेष्ठ सिद्ध करने के लिये ज्ञान का ही आलम्बन
340 / सूत्रकृतांग सूत्र का दार्शनिक अध्ययन
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