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पं. राहुल दर्शन - दिग्दर्शन में सप्तभंगी के पाँचवे, छठे तथा सातवें भंग को जिस अशोभन तरीके से मरोड़ा है, वह उनकी निरी कल्पना और साहस है । जब वे दर्शन को व्यापक, नई और वैज्ञानिक दृष्टि से देखना चाहते है तो किसी भी दर्शन की समीक्षा उसके ठीक स्वरूप को समझकर करनी चाहिए। वे अवक्तव्य नामक धर्म का, जोकि अस्ति आदि के साथ स्वतन्त्र भाव से द्विसंयोगी हुआ है, तोड़कर 'अ-वक्तव्य' करके उसका संजय के 'नहीं' के साथ मेल बिठा देते है और संजय के घोर अनिश्यवाद को ही अनेकान्तवाद कह डालते है, इससे बड़ा आश्चर्य क्या होगा ? 22
भगवान महावीर का अनेकान्तवादी दृष्टिकोण
विमर्शणीय है कि संजय वेलट्ठिपुत्त का दृष्टिकोण अज्ञानवादी या संशयवादी था इसलिये वह किसी प्रश्न का उत्तर निश्चयात्मक नहीं देता था । परन्तु भगवान महावीर का दृष्टिकोण अनेकान्तवादी था, अत: वे प्रत्येक प्रश्न का उत्तर निश्चयात्मक भाषा में देते थे । भगवती तथा अन्य आगमों में भी भगवान महावीर के साथ हुए प्रश्नोत्तरों का विशाल संकलन है। उनके अध्ययन से पता चलता है कि भगवान महावीर द्रव्यार्थिक तथा पर्यायार्थिक- इन दो नय दृष्टियों से प्रश्नों का समाधान करते थे। ये ही दो नय अनेकान्तवाद का मूल आधार है । स्यादवाद के तीन भंग मौलिक है - स्यात् अस्ति, स्यात् नास्ति, स्यात् अवक्तव्य । भगवान महावीर प्रश्नों के समाधान में, तत्त्व के निरूपण में बार-बार इनका प्रयोग किया है। संजय की प्रतिपादन शैली चतुर्भगात्मक थी जबकि भगवान महावीर की त्रिभंगात्मक थी। फिर इस कल्पना का कोई अर्थ नहीं कि संजय के अनुयायियों के लुप्त हो जाने पर जैनों ने उसके सिद्धान्त को अपना लिया। सत्, असत्, सत्-असत्, और अनुभय (अवक्तव्य) ये चार भंग उपनिषद् काल से चले आ रहे है । उस समय के प्रायः सभी दार्शनिकों ने इन भंगों का किसी न किसी रूप में प्रयोग किया है, फिर यह मान्यता निराधार है कि संजय वेलट्ठिपुत्त के भंगों के आधार पर स्याद्वाद की सप्तभंगी विकसित की | 23
'स्यात्' शब्द की परिभाषा
स्यात् अस्ति का अर्थ 'हो सकता है' यह भी काल्पनिक है । स्यात् शब्द संशयात्मक या अनिश्चययात्मक न होकर निश्चय अर्थ में है । एकाधिक भेद या विकल्प की सूचना जहाँ करनी होती है, वहाँ 'सिया' (स्यात्) पद का प्रयोग समवशरण अध्ययन में प्रतिपादित चार वाद तथा 363 मत / 339
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