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3. 'है भी और नहीं भी नहीं कह सकता ।
4. 'न है और न नहीं है' नहीं कह सकता ।
इसकी तुलना कीजिए जैनों के सात प्रकार के स्याद्वाद से 1. 'है ?' हो सकता है। (स्यात् अस्ति )
2. 'नहीं है ?' नहीं भी हो सकता है । (स्यात् नास्ति )
3. ' है भी और नहीं भी ?' है भी और नहीं भी हो सकता है । (स्यात् अस्ति च नास्ति च )
उक्त तीनों उत्तर क्या कहे जा सकते है ? इसका उत्तर जैन नहीं में देते
है ।
4. स्यात् (हो सकता है) क्या यह कहा जा सकता है ? (वक्तव्य) नहीं । स्याद अवक्तव्य है । 5. स्यादस्ति क्या यह वक्तव्य है ? नहीं, स्यादस्ति अवक्तव्य है। 6. स्यान्नास्ति - क्या यह वक्तव्य है ? नहीं, स्यान्नास्ति अवक्तव्य है । 7. स्याद् अस्ति च नास्ति च क्या यह वक्तव्य है ? नहीं, स्याद अस्ति च नास्ति च अवक्तव्य है ।
दोनों को मिलाने से मालूम होगा कि जैनों ने संजय के पहले वाले तीन वाक्यों (प्रश्न और उत्तर दोनों) को अलग करके अपने स्याद्वाद की छह भंगियाँ बनायी है और उसके चौथे वाक्य 'न है और न नहीं है' को जोड़कर 'स्याद सदसत् भी अवक्तव्य है' यह सातवाँ भंग तैयार कर अपनी सप्तभंगी पूरी की
है ।
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उपलब्ध सामग्री से मालूम होता है कि संजय अपने अनेकान्तवाद का प्रयोग परोक्ष तत्त्वों (परलोक देवता ) पर करता था जबकि जैन संजय की युक्ति को प्रत्यक्ष विषयों पर भी लागू करते है । उदाहरणार्थ प्रत्यक्ष उपस्थित घट की सत्ता के बारे यदि जैनदर्शन से पूछा जाय तो उत्तर निम्न प्रकार का मिलेगा 1. घट यहाँ है ? हो सकता है (स्याद् अस्ति )
2. घट यहाँ नहीं है ? नहीं भी हो सकता है । (स्याद् नास्ति )
3. क्या घट यहाँ है भी और नहीं भी है ? है भी और नहीं भी हो सकता है । (स्याद् अस्ति च नास्ति च )
4. हो सकता है (स्याद्) - क्या यह कहा जा सकता है ? - नहीं, स्याद् यह अवक्तव्य है।
समवशरण अध्ययन में प्रतिपादित चार वाद तथा 363 मत / 337
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