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मिथ्याज्ञान के गर्व से उन्मत्त उनकी दृष्टि में उनके अतिरिक्त, सारा जगत् अज्ञानी है। यही अज्ञानवाद की भूमिका है। इसमें से 'अज्ञानमेव श्रेय:' का सिद्धान्त वृत्तिकार ने कैसे निकाला ? भगवान महावीर के समकालीन छह तीर्थंकरों में से संजयवेलट्ठिपुत्त नामक एक अज्ञानवादी तीर्थंकर था। सम्भवत: उसी के मत को ध्यान में रखते हुए उक्त गाथा की रचना हुई हो। उसके मतानुसार तत्त्वविषयक अज्ञेयता या अनिश्चयता ही अज्ञानवाद की आधारशिला है। यह मत पाश्चात्य दर्शन के अज्ञेयवाद अथवा संशयवाद से मिलता-जुलता है। संजयवेलट्ठिपुत्त का अज्ञानवाद
दीघनिकाय में संजय वेलट्ठिपुत्त के अज्ञानवाद का वर्णन इन शब्दों में मिलता है
'यदि तुम पूछो कि क्या परलोक है तो यदि मुझे ज्ञात हो कि वह है, तो मैं तुम्हें बतलाऊँ कि परलोक है। मैं ऐसा भी नहीं कहता, मैं वैसा भी नहीं कहता, दूसरी तरह से भी नहीं कहता। मैं यह भी नहीं कहता कि वह नहीं है। मैं यह भी नहीं कहता कि वह नहीं नहीं है। परलोक नहीं है, परलोक नहीं नहीं है, परलोक है भी और नहीं भी है। परलोक न है और न नहीं है।''
संजय के परलोक, देवता, कर्मफल और मुक्ति के सम्बन्ध में ये विचार शत-प्रतिशत अज्ञान या अनिश्चयवाद है। वह स्पष्ट कहता है कि 'यदि मैं जानता होऊँ तो बताऊँ।' वह संशयालु नहीं बल्कि घोर अनिश्चयवादी और अज्ञानी था। संशयवाद की उपज हैं स्याद्वाद
महापण्डित राहुल सांकृत्यायन तथा इत: पूर्व डॉ. जेकोबी आदि ने स्याद्वाद या सप्तभंगी की उत्पत्ति को संजय वेलट्ठिपुत्त के मत से बताने का प्रयत्न किया है। राहुल ने दर्शन-दिग्दर्शन में लिखा है कि 'आधुनिक जैन दर्शन का आधार 'स्याद्वाद' है, जो मालूम होता है कि संजयवेलट्ठिपुत्त के चार अंग वाले अनेकान्तवाद को लेकर सात अंग वाला किया गया है। संजय ने तत्त्वों (परलोक, देवता) के बारे में कुछ भी निश्चयात्मक रूप से कहने से इन्कार करते हुए उस इन्कार को चार प्रकार से कहा है -
1. 'है' नहीं कह सकता।
2. 'नहीं है' नहीं कह सकता। 336 / सूत्रकृतांग सूत्र का दार्शनिक अध्ययन
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