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कहते है, तो कोई अकर्त्ता । कोई उसे अनित्य और मूर्त कहते है, तो कोई उसे नित्य और अमूर्त कहते है । ये सभी मत परस्पर विरूद्ध है, और यथार्थ माना जाए ? 3
अतः किसे
प्रमाणभूत
सर्वज्ञ की असिद्धि
जगत् में कोई अतिशय ज्ञानी भी नहीं है जिसके वचनों को प्रमाणभूत माना जाय। अगर कोई सर्वज्ञ पुरुष विद्यमान भी हो तो अल्पज्ञ उसे जान नहीं सकता। और जो सर्वज्ञ नहीं है, वह सर्वज्ञ को जानने का उपाय भी नहीं जान सकता क्योंकि सर्वज्ञ को जानने का उपाय भी सर्वज्ञ ही जानता है । और स्वयं सर्वज्ञ बने बिना सर्वज्ञ को जानने का उपाय नहीं जाना जा सकता। इस प्रकार सर्वज्ञ ज्ञान तथा सर्वज्ञोपाय ज्ञान में अन्योन्याश्रय दोष होने से सर्वज्ञ को जानना दुष्कर है। अत: सर्वज्ञ कोई है ही नहीं । इसलिये सर्वज्ञ के अभाव में कोई भी दार्शनिक, भले ही किसी भी मत का हो, दर्शन का हो, निश्चयार्थ को नहीं जान सकता। वह अपने दर्शन के हार्द को समझे बिना उस म्लेच्छ की भाँति कथन को दोहरा रहा है, जैसे आर्य पुरुष के अभिप्राय को न समझकर म्लेच्छ पुरुष मात्र उसके कथन को दोहराता है ।
अज्ञानवाद के 67 भेद
निर्युक्तिकार ने अज्ञानवाद के 67 भेदों का कथन किया है " जिसे चूर्णिकार तथा वृत्तिकार ने इस प्रकार स्पष्ट किया है' 5
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जीव- अजीव - पुण्य-पाप- आश्रव-संवर- निर्जरा बंध तथा मोक्ष इन नौ तत्त्वों को सत्, असत्, सदसत्, अवक्तव्य, सदवक्तव्य, असदवक्तव्य, सदसदवक्तव्य इन सात भंगों से गुणन करने पर (9X7 = 63) भेद होते है । जैसे - जीवसत् है, यह कौन जानता है और यह जानने से भी क्या प्रयोजन है ?
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जीव असत् है, यह कौन जानता है और यह जानने से भी क्या प्रयोजन है ?
जीव सदसत् है, यह कौन जानता है और यह जानने से भी क्या प्रयोजन है ?
जीव अवक्तव्य है, यह कौन जानता है और यह जानने से भी क्या प्रयोजन है?
334 / सूत्रकृतांग सूत्र का दार्शनिक अध्ययन
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