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________________ कहा है कि इन चारों वादों में अज्ञानवादी ही अन्यन्त विपरीत भाषी है, जिसमें ज्ञान को समस्त अनर्थों का मूल कहा जाता है तथा ज्ञान के अस्तित्व का इन्कार करके अपलाप किया जाता है ।" 10 चूर्णिकार ने मृगचारिका की चर्या करने वाले अटवी में रहकर फलफूल खाने वाले त्यागशून्य संन्यासियों को अज्ञानवादी माना है । " 12 वृत्तिकार शीलांक ने अज्ञानवाद को तीन अर्थों में प्रयुक्त किया है 1. अज्ञानी अन्यतीर्थिक 2. अज्ञानी बौद्ध 3. अज्ञान में ही विश्वास करने वाले अज्ञानवादियों की धारणा अज्ञानवादी अपने आप को कुशल मानते हुए कहते है कि हम सब तरह से कुशल है । 'अज्ञानमेव श्रेय:' हमारा अज्ञान ही कल्याणकारी है क्योंकि दूसरे जितने भी ज्ञानी है, वे अपने ज्ञान के अहंकार में डूबे रहते है, परस्पर लड़ते है, एक-दूसरे पर आक्षेप करते है तथा वाद-विवाद पैदा करते है। इस प्रकार के वाक्कलह से वे दुःखी एवं असन्तुष्ट रहते है। जबकि हम व्यर्थ में न तो किसी से बोलते है, न ज्ञान का अभिमान कर शेखी बघारते है। हम तो सदैव अपनी मस्ती में जीते है। अज्ञानी होने का प्रत्यक्ष लाभ यह है कि अज्ञात या प्रमाद वश किये गये अपराध का दण्ड बहुत कम या माफ कर दिया जाता है जबकि जानबुझकर किये गये अपराध का दण्ड बहुत अधिक मिलता है। अज्ञानवादी अज्ञान को कल्याणकारी सिद्ध करने के लिये अनके तर्क भी प्रस्तुत करते है - इस संसार में सत्यासत्य का निर्णय कर पाना अत्यन्त कठिन है। क्योंकि विभिन्न मत है, अनेक पंथ और शास्त्र है। बहुत से धर्म प्रवर्त्तक है। ऐसी स्थिति में यह निश्चय कर पाना बहुत कठिन है कि किसका ज्ञान सत्य है और किसका असत्य । फिर जितने भी ज्ञानी है, वे सभी एक-दूसरे से विरूद्ध पदार्थ का स्वरूप बतलाते है तथा अपने ही मत और सिद्धान्त को सत्य कहते है। उसे सिद्ध करने के लिये हेतु और युक्तियाँ देते है । ऐसी स्थिति में सत्य का निर्णय कैसे किया जा सकता है ? जैसे कोई आत्मा को सर्वव्यापी कहते है, तो कोई शरीरव्यापी । कोई अँगूठे के पर्व के समान मानते है, तो कोई हृदय में स्थित मानते है और कोई ललाट स्थित भी कहते है । कोई आत्मा को कर्त्ता समवशरण अध्ययन में प्रतिपादित चार वाद तथा 363 मत / 333 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003613
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra Ka Darshanik Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNilanjanashreeji
PublisherBhaiji Prakashan
Publication Year2005
Total Pages436
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Philosophy, & agam_related_other_literature
File Size18 MB
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