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विनयवादी मत के प्रतिपादक है ।' परन्तु वृत्तिकार ने पूरे श्लोक को विनयवादी M मत का प्रतिपादक माना है, जो कि संगत नहीं लगता । '
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चूर्णिकार ने इन दो चरणों का अर्थ इस प्रकार किया है। अज्ञानवादी ऐसा चिन्तन करते है कि सत्य कभी-कभी असत्य हो जाता है, इसलिये सत्य भी नहीं कहना चाहिए । साधु को देखकर भी साधु न कहा । कभी वह साधु हो सकता है और कभी असाधु हो सकता है। चोर कभी चोर हो सकता है, कभी अ-चोर हो सकता है ।
वेश के आधार पर स्त्री को स्त्री न कहा जाये । वह स्त्री भी हो सकती है, पुरुष भी हो सकती है। इसी प्रकार पुरुष पुरुष भी हो सकता है, स्त्री भी हो सकता है।
इस प्रकार सभी विषयों में अभिशंकित होने के कारण उनके दर्शन के लिये असम्यग्दर्शन, सम्यग् और सम्यग्दर्शन, असम्यग् बन जाता है।
वृत्तिकार के अनुसार इसका अर्थ है - वे (विनयवादी) सत्य को असत्य और असत्य को सत्य तथा असाधु को साधु मानते है । "
चूर्णिकार तथा वृत्तिकार ने जो अर्थ किये है, वे मूल से बहुत दूर जा पड़ते है । यथार्थ में अज्ञानवादी प्रत्येक विषय में अभिशंकित होते है। वे किसी भी तथ्य का निश्चय नहीं कर पाते । प्रस्तुत दो चरणों में यही स्पष्ट किया गया है। परलोक, स्वर्ग, नरक, सत्य है या असत्य है - ऐसा पूछने पर वे कहते हैहम नहीं जानते। वे यह नहीं कह सकते कि यह अच्छा है, यह बुरा है ।
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प्रस्तुत अध्ययन में अज्ञानवाद के स्वरूप का प्रतिपादन इस प्रकार हुआ
अज्ञानवादी कुशल होते हुए भी संशय रहित नहीं है । वे स्वयं 'कौन जानता है ?' (को वेत्ति=कोविद ) इस प्रकार का संशय करते है और इस प्रकार संशय करने वालों (अकोविदों) में ही अपनी बात रखते है । वे पूर्वापर का विमर्श नहीं करते इसलिये वे मृषा बोलते है ।
(परलोक आदि) सत्य है या असत्य है ? (यह हम नहीं जानते) ऐसा चिन्तन करते हुए तथा यह बुरा है, यह अच्छा है, ऐसा कहते हुए (वे मृषा बोलते है । )
प्रस्तुत अध्ययन में अज्ञानवाद का उल्लेख क्रम की अपेक्षा सबसे अन्त में है, तथापि वृत्तिकार ने इसकी सर्वप्रथम समीक्षा का कारण प्रस्तुत करते हुए
332 / सूत्रकृतांग सूत्र का दार्शनिक अध्ययन
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