________________
मनितप्रभजी के आत्मीय सहयोग को कैसे विस्मृत कर सकती हूँ, जिन्होंने अपनी स्वाध्याय एवं अध्ययन सम्बन्धी व्यस्तताओं के बावजूद भी मेरे लिखे हुए अध्यायों को अपनी सुन्दर लिपि में पुनर्लेखन कर प्रस्तुति के योग्य बनाया। मैं कृतज्ञता ज्ञापन के द्वारा उनके प्रेम पगे अपनत्व के भावों का मूल्यांकन कर उसे सीमित नहीं करना चाहती। असीम उनकी आत्मीयता शब्दों के दायरे में सिमट जाये, यह मुझे कतई अभीप्सित नहीं है। मेरी हार्दिक मंगल कामनाएँ है अनुज मुनि के प्रति।
अबोध बालिका, मात्र 6 या 7 वर्ष की उम्र, कोरे कागज-सा हृदय और उसी हृदय पर जिनके वात्सल्य के छींटे बिखरे... नि:सन्देह मेरी दादी गुरु, परम पूजनीया, आगम ज्योति, स्व. प्रवर्तिनीजी श्री प्रमोदश्री जी म.सा., जिनकी हूबहू तस्वीर तो मेरे मानस पटल पर अंकित नहीं है, शायद यह एक बार ही दर्शन और वह भी अल्प समय के लिये किये हुए का ही परिणाम है। उनके दिव्याशीष ने ही मुझे आज इस मुकाम तक पहुँचाया है। मेरी श्रद्धासिक्त अनंतश: वन्दनाएँ-समर्पित है उन आगम ज्योति के श्रीचरणों में।
जिनकी पावन सान्निध्यता हमारा संबल है, उन परम पूजनीया समता चक्रवर्ती श्री प्रकाश श्री जी म.सा., जिनका असीम वात्सल्य भरा संरक्षण शिशु अवस्था में और संयमी जीवन में सदैव प्राप्त होता रहा है, उन परम पूजनीया, दृढ़ संकल्प की धनी, ताईजी म. श्री रतनमाला श्री जी म.सा. के पावन चरणों में विनम्र वन्दनाएँ प्रस्तुत करने के साथ भविष्य में भी उनसे इसी प्रकार की अमीवृष्टि की कामना करती हूँ।
शोध प्रबन्ध की पूर्णाहूति के मंगलमय इन क्षणों में... जीवन के प्रत्येक कार्य के प्रारम्भ में जिनका आशीष ही मेरा आदि मंगल है, जीवन की प्रत्येक उपलब्धि में जिनका कुशल मार्गदर्शन ही मेरा आलम्बन है, जीवन के हर कदम पर जिनका असीम वात्सल्य ही मेरा संबल है, उन परम पूजनीया, परम श्रद्धेया, मेरे हृदय के कण-कण में विराजमान गुरुवर्या श्री डॉ. विद्युत्प्रभाश्री जी म.सा. के पावन चरणों में श्रद्धासह सर्वतोभावेन प्रणत हूँ। मुझे उन्होंने जहाँ शैशव काल में अपनी स्नेहसुधा से भिगोया, वहीं युवावस्था की ओर अग्रसर होते मेरे जीवन को अपनी ज्ञानसुधा का अप्रतिम आलोक प्रदान कर संयम पथ पर आरूढ किया। वे मेरे अबोध बचपन की बहिन है,
xxviii
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org