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1. आहारसंपज्जण - आहार संप्रज्वलन अर्थात् जो आहार को संप्रज्वलित करता है अथवा आहार में रस या मधुरता उत्पन्न करता है, उस नमक के त्याग से मोक्ष मानने वाले।
2. सीओदगसेवण - अर्थात् शीतल जल के सेवन तथा स्नानादि से मोक्ष मानने वाले।
3. हुष्ण - होम अर्थात् यज्ञ में हवन से अग्नि को तृप्त कर मोक्ष की अभिलाषा करने वाले।
_ग्रन्थकार ने मोक्षवादियों की मिथ्या मान्यताओं का अनेक दृष्टान्तों द्वारा खण्डन किया है कि मोक्ष के प्रतिबन्धक कारणों राग, द्वेष, काम, क्रोध, लोभ, मोह आदि विकृतियों का अन्त करने पर ही मोक्ष हो सकता है।
यदि नमक त्याग से मोक्ष प्राप्ति होती है तो जिस देश में नमक नहीं होता, उन सभी का मोक्ष हो जाता। इसी प्रकार यदि जल स्पर्श से ही मुक्ति होती है. तो जल के आश्रय में रहने वाले मछली, सर्प, बतख तथा निर्दयी मछुएँ भी कभी के मुक्त हो जाते। जल यदि मल को दूर करता है, तो प्रिय अंगराग को भी नष्ट कर देता है। फलितार्थ यह है कि वह पाप के साथ पुण्य को भी धो डालता है। अत: जलस्पर्श पापकर्म का घातक और मोक्ष का साधक न होकर जलकायिक जीवों तथा तदाश्रित अनेक त्रस जीवों की हिंसा का ही कृत्य है।"
वस्तुत: ब्रह्मचारी मुनियों के लिये जलस्नान दोष के लिये ही होता है क्योंकि जल स्नान मद और दर्प को उत्पन्न करता है। वह काम का प्रथम अंग है, इसलिये मोक्षाभिलाषी दान्त मुनि काम का परित्याग कर कभी स्नान नहीं करते। 'जल से भीगा हुआ शरीर वाला पुरुष स्नान किया हुआ नहीं माना जाता किन्तु जो व्रतों से नहाता है, वही अन्दर और बाहर से शुद्ध माना जाता है।'35
___ अग्नि से सिद्धि की बात करने वाले अग्निहोत्रवादियों का कथन भी युक्ति विरूद्ध है। यदि अग्नि के समारम्भ से मुक्ति मिलती तो वनदाहक, लुहार, कुम्हार, सुनार के व्यवसाय को कुकर्म नही कहा जाता, फिर तो इन्हें भी मुक्ति मिल जानी चाहिये थी।
श्रमण महावीर ने अग्नि के उज्जालन-पज्जालन करने वाले मनुष्य को भी जीवों का हिंसक कहा है।" भगवती सूत्र में इसी आशय को स्पष्ट करने वाला एक सुन्दर संवाद है, जिसमें कालोदायी ने भगवान से अग्नि को जलाने और बुझाने के विषय में प्रश्न किये है। भगवान ने अग्नि जलाने वाले को महाकर्म 328 / सूत्रकृतांग सूत्र का दार्शनिक अध्ययन
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