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________________ के 40वें अध्ययन में इनके वचन संकलित है। महाभारत के अनुसार यह माना गया है कि महर्षि पाराशर के द्वारा सत्यवती के गर्भ से उत्पन्न मुनिवर वेदव्यास यमुना के द्वीप में छोड़े दिये गये, इसलिये इनका नाम द्वैपायन (द्वीपायन) पड़ा। 7. पाराशर - ऋषिभासित में इनका नामोल्लेख प्राप्त नहीं है। महाभारत में पाराशर्य और पराशर नाम के ऋषियों का वर्णन प्राप्त होता है।2 औपपातिक सूत्र में आठ ब्राह्मण परिव्राजकों तथा आठ क्षत्रिय परिव्राजकों का उल्लेख मिलता है - 1. कण्डू 2. करकण्ट 3. अंबड 4. पराशर 5. कृष्ण 6. द्वीपायन 7 देवगुप्त और 8. नारद, ये आठ ब्राह्मण परिव्राजक है। 1. शीलधी 2. शशिधर 3. नग्नक 4. भग्नक 5. विदेह 6. राजराज 7. राजाराम 8. बल, ये आठ क्षत्रिय परिव्राजक है। वहाँ इनकी तपस्या का विस्तार से निरूपण हुआ है। इन परिव्राजकों को सांख्य, योगी, कपिल, भार्गव, हंस, परमहंस, बहुउदक, कुलीव्रत तथा कृष्ण परिव्राजक इन सम्प्रदायों के अन्तर्गत माना गया है। इनमें पराशर, द्वीपायन, विदेह ये तीन नाम प्रस्तुत चर्चा से सम्बद्ध है। राम रामपुत्र का संक्षिप्त रूप हो सकता है। चूर्णिकार ने प्रस्तुत श्लोकों की चूर्णि में सबको राजर्षि माना है। किन्तु औपपातिक सूत्र के सन्दर्भ में यह मीमांसनीय है। पराशर और द्वीपायन- ये ब्राह्मण ऋषि ही प्रतीत होते है। चूर्णिकार ने बताया है कि ये सब प्रत्येकबुद्ध वनवासी थे और बीज, हारित आदि का भोजन करते थे। वहाँ रहते हुये उन्हें विशिष्ट प्रकार के ज्ञान प्राप्त हुए। उस समय के लोग इन ऋषियों की ज्ञानोपलब्धि की तुलना भरत को आदर्श गृह में उत्पन्न ज्ञानोपलब्धि से करते थे। चूर्णिकार ने इस तर्क के समाधान में यह लिखा है कि भरत चक्रवर्ती को गृहस्थावस्था में ज्ञान तभी उत्पन्न हुआ था, जब वे भावसाधु बन गये थे तथा 4 घाती कर्मों का नाश हो चुका था। प्रश्नकार यह नहीं जानते कि किस अवस्था में विशिष्ट ज्ञान उत्पन्न होता है और किस संहनन में मुक्ति होती है ? इसलिये वे कह देते है कि ये ऋषि कन्दमूल आदि खाते हुए, अग्नि का समारम्भ करते हुए सिद्ध हुए है। सूत्रकृतांग सूत्र के सप्तम अध्ययन में कुशील की व्याख्या के सन्दर्भ में भी कुछ इसी से मिलता-जुलता वर्णन उपलब्ध होता है। 'इस जगत में कुछ मूढ मनुष्य नमक न खाने से मोक्ष बताते है, कुछ सजीव जल से स्नान करने से तथा कुछ हवन करने से मोक्ष की प्राप्ति बताते है। 326 / सूत्रकृतांग सूत्र का दार्शनिक अध्ययन Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003613
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra Ka Darshanik Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNilanjanashreeji
PublisherBhaiji Prakashan
Publication Year2005
Total Pages436
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Philosophy, & agam_related_other_literature
File Size18 MB
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