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सूत्रकार ने इस गाथा के पूर्वार्ध में पौराणिक मान्यता को प्रदर्शित किया है, वहीं उत्तरार्ध में आजीवकों के मान्य तीर्थंकर की ज्ञान सीमा बताई है। अथवा अन्य प्रकार से देखा जाय तो सम्पूर्ण गाथा में पौराणिक मत का ही प्ररूपण है। पुराण के अनुसार ब्रह्माजी का एक दिन चार हजार युगों का होता है और रात्रि भी इतनी ही होती है । " ब्रह्माजी दिन में जब पदार्थों की सृष्टि करते है, तब उन्हें सभी पदार्थों का अपरिमित ज्ञान होता है, किन्तु रात में जब वे सोते है, तो उन्हें परिमित ज्ञान भी नहीं होता। इस प्रकार परिमित अज्ञान होने के कारण उनमें ज्ञान और अज्ञान दोनों की सम्भावना परिलक्षित होती है । अथवा वे कहते है- 'ब्रह्माजी एक हजार दिव्य वर्ष सोये रहते है, उस समय वे कुछ भी नहीं देखते और जब उतने ही काल तक वे जागते है, तब वे देखते है । " इस प्रकार बहुत से लोकवाद प्रचलित है।
लोकवाद का खण्डन
शास्त्रकार ने लोकवाद की मिथ्या मान्यताओं का खण्डन किया है। कुछ दार्शनिक लोक को नित्य मानते हुए कहते है कि ' त्रस प्राणी सदैव त्रस ही रहते है तथा स्थावर प्राणी सदैव स्थावर ही रहते है। त्रस कभी स्थावर नहीं होते तथा स्थावर कभी त्रस नहीं होते । पुरुष मरकर पुरुष ही होता है और स्त्री मरकर स्त्री ही बनती है ।' परन्तु लोकवादियों का यह कथन सर्वथा असत्य है ।
आचारांग सूत्र में भगवान् महावीर ने स्पष्टत: इस सिद्धान्त का प्रतिपादन किया है कि स्थावर पृथ्वीकायादि जीव त्रस द्वीन्द्रियादि के रूप में उत्पन्न हो जाते है और स जीव स्थावर के रूप में उत्पन्न हो जाते है । अथवा संसारी जीव सभी योनियों में उत्पन्न हो सकते है। अज्ञानी जीव अपने-अपने कर्मों से पृथक्-पृथक् रूप रचते है । "
यदि लोकवाद सत्य हो कि जो प्राणी इस जन्म में जैसा है, अगले जन्म भी वैसा ही होता है, तब तो तप-जप-यम-नियम-संयम आदि समस्त अनुष्ठान व्यर्थ हो जायेंगे। यदि सामान्य गृहस्थ भवान्तर में भी गृहस्थ ही बनेगा तो देवगति या उच्चगति के लिये क्यों कोई साधना या तपस्या करेगा ? क्योंकि उस शुभानुष्ठान सेतो कुछ भी परिवर्तन होना नहीं है ।
लोकवादी एक तरफ लोक को कूटस्थ नित्य मानते है परन्तु दूसरी तरफ जीवों का एक पर्याय से दूसरी पर्याय में उत्पन्न होना मानकर अपनी ही बात
सूत्रकृतांग सूत्र में वर्णित वादों का दार्शनिक विश्लेषण / 319
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