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लोकवादियों की ईश्वर के सर्वज्ञत्व विषयक युक्तिविरूद्ध धारणाएँ
शास्त्रकार ने लोकवाद के सन्दर्भ में ईश्वर की सर्वज्ञता सम्बन्धी पौराणिक मान्यताओं को भी प्रस्तुत किया है। यहाँ सर्वज्ञवादी दो प्रकार का अभिमत प्रस्तुत करते है -
1. ईश्वर (सर्वज्ञ) अनन्त, अपरिमित पदार्थों को जानता है, अत: अनन्त ज्ञान का धारक है। वह अतीन्द्रिय पदार्थों का ज्ञाता है। उसका ज्ञान सर्वत्र अप्रतिहत होता है।
2. ईश्वर अपरिमित पदार्थों का ज्ञाता अवश्य है परन्तु वह सर्वज्ञ नहीं है। वह तिर्यग, उर्ध्व और अधोलोक को क्षेत्र और काल की दृष्टि से परिमित रूप में ही जानता है।"
वृत्तिकार ने इसका स्पष्टीकरण इस प्रकार किया है- कुछ मतावलम्बियों के अनुसार कोई सर्वज्ञ नहीं होता। अतीन्द्रियद्रष्टा ऋषि क्षेत्र की दृष्टि से अपरिमित क्षेत्र को, काल की दृष्टि से अपरिमित काल को जानते है। अपरिमित का दूसरा तात्पर्य है- आवश्यक तत्त्वों के ज्ञाता ऋषि अतीन्द्रिय दृष्टा है अर्थात् अतीन्द्रिय दृष्टा तथाकथित तीर्थंकर अपरिमित ज्ञानी होकर भी जो अतीन्द्रिय पदार्थ उपयोगी हो, किसी प्रयोजन में आते हो, उन्हीं को जानते है। जैसे कि आजीवक मतानुयायी अपने तीर्थंकर मंखली गोशालक के विषय में कहते है -12
तीर्थंकर सभी पदार्थों को देखे या न देखे, जो अभीष्ट या मोक्षोपयोगी पदार्थ है, उन्हें देख ले, इतना ही काफी है। कीड़ों की संख्या जानने से हमें क्या प्रयोजन ? अर्थात् कीड़ों की संख्या का ज्ञान निरर्थक है। उस ज्ञान से किसी का प्रयोजन सिद्ध नहीं होता।
___ 'अतएव हमें उसके (तीर्थंकर) अनुष्ठान सम्बन्धी या कर्त्तव्याकर्त्तव्य सम्बन्धी ज्ञान का ही विचार करना चाहिए। अगर दूरदर्शी को ही प्रमाण मानेंगे तो फिर हम उन दूर-दूर तक देखने वाले गिद्धों के उपासक माने जायेंगे। __यह मत सर्वज्ञ को पूर्ण ज्ञाता न मानने वाले अन्यतीर्थिकों का है। इसी आशय से शास्त्रकार ने इस गाथा के उत्तरार्ध में 'सव्वत्थ सपरिमाणं' पद प्रयुक्त किया है।
अथवा दूसरा मत यह है कि समस्त देश कालों में स्थित पदार्थ समह परिमाण युक्त है, परिमित है, अत: क्षेत्र और काल की दृष्टि से परिमित को ही जाना जा सकता है। 318 / सूत्रकृतांग सूत्र का दार्शनिक अध्ययन
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