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________________ तात्पर्य यह है कि पृथ्वी, जल, तेज, वायु, वनस्पति तथा एकेन्द्रिय से लेकर पंचेन्द्रिय तक जितने भी प्राणी है, उनका सम्मिलित रूप ही लोक है। इस लोक का कभी निरन्वय नाश नहीं होता। अन्वय अर्थात् वंश (नस्ल)। जिस वंश का कभी भी विनाश नहीं होता, वह निरन्वय है। स्पष्ट है कि इस जन्म में जो जैसा है, वह परलोक में भी, यहाँ तक कि सदाकाल के लिये वैसा ही उत्पन्न होता है। पुरुष, पुरुष ही होता है, स्त्री, स्त्री ही होती है। अथवा अनन्त का दूसरा अर्थ यह भी सम्भव है कि अपरिमित, अवधिशून्य लोक की कालकृत कोई अवधि नहीं है। यह तीनों कालों में विद्यमान रहता है।' वृत्तिकार ने किसी भी मत का उल्लेख न करते हुए लिखा है कि यह लोक शाश्वत है अर्थात् बार-बार उत्पन्न नहीं होता। सदैव वर्तमान रहता है। यद्यपि द्वयणुक आदि कार्यद्रव्यों की उत्पत्ति की दृष्टि से यह शाश्वत नहीं है तथापि कारणद्रव्य परमाणु रूप से इसकी उत्पत्ति कदापि नहीं होती, इसलिये यह शाश्वत है। उनके अनुसार काल, दिशा, आकाश, आत्मा और परमाणु आदि का कभी विनाश नहीं होता। इस सांख्यमत का उल्लेख है। चूर्णिकार के अनुसार सांख्यमतावलम्बी लोक को अनन्त और नित्य मानते है। यह लोक नित्य है अर्थात् उत्पत्ति-विनाश रहित, सदैव स्थिर, एक सरीखे स्वभाव वाला है। क्योंकि उनके द्वारा सम्मत 'पुरुष' तत्व सर्वव्यापी, कुटस्थ नित्य और अपरिणमनशील है।' किन्हीं पौराणिकों के अनुसार 'अंतवं णिइए लोए' यह लोक अन्तवान् है अर्थात् जिसका अन्त होता है, या जो ससीम है। पौराणिक यह मानते है कि क्षेत्रोपेक्षया यह लोक सात द्वीप और सात समुद्र परिमाण वाला है। वह काल की दृष्टि से नित्य है क्योंकि प्रवाह रूप से आज भी दिखायी देता है। उपरोक्त विवेचन से यह स्पष्ट होता है कि लोक के विषय में लोकवादियों की परस्पर विरोधी मान्यताएँ है। कोई लोक को नित्य, अनन्त और शाश्वत् कहता है, तो कोई उसे नित्य होने पर भी सान्त कहता है। इस प्रकार के विरोधी मन्तव्य व्यासादि धीर पुरुषों का अतिदर्शन है। अतिदर्शन से तात्पर्य है कि वस्तु स्वरूप को देखने का अतिक्रमण । अर्थात् जो वस्तु जैसी है, उसे वैसे ही स्वरूप में न देखना। वस्तु के यथार्थ स्वरूप का दर्शन उसी को हो सकता है, जिसकी दृष्टि सम्यक् हो। सूत्रकृतांग सूत्र में वर्णित वादों का दार्शनिक विश्लेषण / 317 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003613
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra Ka Darshanik Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNilanjanashreeji
PublisherBhaiji Prakashan
Publication Year2005
Total Pages436
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Philosophy, & agam_related_other_literature
File Size18 MB
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