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प्रस्तुत श्लोक में सूत्रकार ने लोकवाद को सुनने और जानने का निर्देश किया है। लोकवाद के दो अर्थ है -2
1. अन्य तीर्थिकों तथा पौराणिकों के लोक सम्बन्धी विचार | 2. लोकमान्यता- अन्य तीर्थिकों की धार्मिक मान्यता ।
'लोक' शब्द के तीन अर्थ किये जा सकते है - जगत्, पाषण्ड और गृहस्थ । यहाँ इसका प्रथम अर्थ प्रासंगिक प्रतीत होता है। चूर्णिकार ने पाषण्ड तथा गृहस्थ ये दो अर्थ मान्य किये है। जबकि वृत्तिकार ने पाषण्ड तथा पौराणिक ये दो अर्थ प्रस्तुत किये है। चूर्णिकार ने लौकिक मत को कुछ उदाहरणों द्वारा समझाया है । ' जैसे - सन्तानहीन का लोक नहीं होता । जो पुत्रहीन है, उसकी गति नहीं होती, स्वर्ग तो कदापि नहीं मिलता । 'अपुत्रस्य गतिर्नास्ति, स्वर्गो नैव च नैव च।' गाय को मारने वाले का लोक नहीं होता। इस मत के अनुसार 'ब्राह्मणो हि देवता' ब्राह्मण को देवता, 'श्वानो यक्षा: ' कुत्ते को यक्ष तथा कौओं को पितामह माना जाता है।
लोकवाद का प्रारम्भ
शास्त्रकार ने लोकवाद को चर्चा का विषय बनाया है, इससे यह अनुमान होता है कि भगवान महावीर के उस युग में पूरणकश्यप, मंखली गोशालक, अजित केशकंबल, पकुद्ध कात्यायन, गौतम बुद्ध एवं संजय वेलट्ठिपुत्त आदि कई तथाकथित तीर्थंकर एवं सर्वज्ञ माने जाते थे तथा वैदिक पौराणिकों में व्यास, बादरायण, भारद्वाज, पाराशर, हारीत, मनु आदि भी थे, जिन्हें जनमानस सर्वज्ञाता के रूप में मानता था। उनसे अगम - निगम की, लोक-परलोक की, प्राणी के मरणोत्तर अवस्था की तथा प्रत्यक्ष दृश्यमान सृष्टि (लोक) की उत्पत्ति, स्थिति तथा प्रलय की चर्चाएँ होती । जो व्यक्ति युक्तिपूर्वक जनमानस में अपनी बात बिठा देता, उसे अन्धविश्वासपूर्वक अवतारी, सर्वज्ञ या पुराणपुरुष मान लिया जाता। कई बार ऐसे लोग अपने अन्धविश्वासी लोगों में ब्राह्मण, कुत्ता, गाय आदि प्राणियों के सन्दर्भ में अपनी सर्वज्ञता प्रमाणित करने के लिये आश्चर्यजनक, विसंगत एवं विचित्र मान्यताएँ फैला देते थे ।
लोकवाद की विचित्र मान्यताएँ
किन्हीं का यह मत है कि 'अणंते निइए लोए' लोक अनन्त है । वृत्तिकार अनन्त के दो अर्थ किये हैं - अनन्त अर्थात् जिसका निरन्वय नाश नहीं होता । 316 / सूत्रकृतांग सूत्र का दार्शनिक अध्ययन
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