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थी और साथ ही जिस धर्म संघ में मैं दीक्षित हुई हूँ, उस संघीय साहित्य को भी अपनी सेवाएँ समर्पित करना चाहती थी। इस द्वन्द्व में मेरा खूब समय बीता। कभी इस ओर पलड़ा भारी होता तो कभी उस पार पहुँचती। समय बीतता रहा पर निर्णायक पल का मुझे लम्बे समय तक इन्तजार करना पड़ा। आखिर दो वर्ष पूर्व जब हम जोधपुर प्रवास कर रहे थे, उस समय विषय चुनाव हेतु पू. गुरुवर्या श्री ने जैन दर्शन के प्रखर विद्वान, आदरणीय, सरल स्वभावी डॉ. श्री धर्मचन्द जी जैन को निवेदन किया।
डॉ. जैन चूंकि उस समय 'जिनवाणी' पत्रिका का आगम विशेषांक तैयार कर रहे थे, अत: उन्होंने तुरन्त ही 'सूत्रकृतांग सूत्र का दार्शनिक अध्ययन' विषय पर शोध प्रबन्ध लिखने का सुझाव दिया। गुरुवर्याश्री के आदेश पर मैंने इसे तुरन्त स्वीकार कर लिया।
जोधपूर प्रवास के पश्चात् क्रमश: हम विहार करते हुए चातुर्मास हेतु पालीताणा पहुँचे। राँका परिवार द्वारा आयोजित चतुर्विध संघ के चातुर्मास की अवधि में तो समयाभाव रहा पर चातुर्मास समाप्ति के पश्चात् कुछ समय के लिए उदयपुर से मेरे परम आदरणीय, विद्वद्वर्य, पुरुषार्थ के धनी डॉ. कर्नल श्री डी.एस. बया पधारे। उनके आत्मीयता भरे कड़े उपालम्भ से ही मेरा शोध कार्य प्रारम्भ हो सका।
यद्यपि पालीताणा में शोध के लिए अपेक्षित पुस्तकालय का अभाव था, फिर भी प्रारम्भिक लेखन-पठन की पूर्ति हो गयी। आगे के अध्याय-लेखन हेतु मैं अपने मार्गदर्शक, परम त्यागी, इन्द्रियजेता डॉ. श्री जितेन्द्र भाई शाह के आग्रह व गुरुवर्या श्री के निर्देश से अहमदाबाद पहुंची।
अहमदाबाद नवरंगपुरा दादावाड़ी का श्रद्धा और भक्ति भरा अनुकूल वातावरण.... दादा गुरुदेव की बरसती अमृतधारा ....... हजारों-लाखों की उमड़ती भीड़.....। मेरे लिये वह पावन परिसर वरदान बन गया। यहाँ लेखन के दौरान मुझे जब-जब कठिनाई का अहसास हुआ, गुरुदेव ने तब-तब मेरे मानस के बन्द द्वारों को उद्घाटित कर मेरी लेखन यात्रा को अपने आशीष से आलोकित किया। उन करूणापुंज गुरुदेव को मेरी असीम वन्दनाएँ समर्पित है।
साथ ही लालभाई दलपतभाई शोध संस्थान का अपेक्षित सहयोग.....
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