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________________ एवं यौगिक उपलब्धियों से सिद्धि की प्राप्ति मानते है और इस प्रकार स्वमत की प्रशंसा करते हुए उसी में आसक्त एवं ग्रस्त रहते है । " जैन दर्शन में सिद्धि का स्वरूप जैन दर्शन में शिव, अचल, अरूज, अनन्त, अक्षय, अव्यावाध, अपुनरावृत्ति (संसार में पुनरागमन से रहित) रूप सिद्धिगति का स्वरूप प्रतिपादित है । यहाँ अपुनरावृत्ति शब्द के उल्लेख से अवतारवाद का खण्डन हो जाता है ।" सिद्धिगति वह है, जहाँ जाने के बाद आत्मा पुनः संसार में नहीं लौटता। जो प्रावादुक इस प्रकार का कथन करते है, वे युक्ति और प्रमाण से रहित कपोल कल्पना का ही सहारा लेते है । वे भ्रामक धारणाओं से इतने ग्रस्त होते है कि आत्मा की उर्ध्वगामिता को भी विस्मृत कर जाते है, क्योंकि जो आत्मा चरम उत्कर्ष पर पहुँच गयी, उसका पुन: पतन कैसे सम्भव होगा ? जैनदर्शन के अनुसार जीव द्रव्य का स्वभाव उर्ध्वगतिशीलता है, ऊँचा उठना है। जब तक प्रतिबंधक द्रव्य का संग या बंधन विद्यमान रहता है, तभी तक वह तिरछी या नीची दिशा में गति करता है। ज्योंहि कर्म का आत्यन्तिक क्षय होता है, तो जीव अपने स्वभावानुसार उर्ध्वगति ही करता है। यहाँ उर्ध्वगति के लिये तुम्बे और एरण्ड का उदाहरण भी दिया गया है । जैसे - अनेक लेप से युक्त तुम्बा पानी में पड़ा रहता है, परन्तु लेप रहित होते ही वह स्वभावत: पानी के ऊपर तैरने लगता है। एरण्ड बीज फली के फुटते ही छिटककर ऊपर उठता है, उसी प्रकार आत्मा जब कर्म के लेप से रहित होता है, तो अग्नि की लौ की तरह उर्ध्वगमन ही करता है । " तर्कसम्राट् आचार्य सिद्धसेन ने अवतारवादियों की मोहवृत्ति को उजागर करते हुए कहा है दग्धेन्धन पुनरूपैति भवं प्रमथ्य, निर्वाणमप्यनवधारित भीरू निष्ठम् । मुक्त: स्वयं कृतभवश्च परार्थशूरम, त्वच्छासनप्रतिहतेष्विह मोहराज्यम् ॥ 'हे वीतराग प्रभो ! आपके शासन को ठुकारने वाले व्यक्तियों पर मोह का प्रबल साम्राज्य छाया हुआ है । वे कहते है कि जिन आत्माओं ने कर्मरूपी ईंधन को जलाकर संसार का नाश कर दिया है, वे भी मोक्ष को छोड़कर पुनः संसार में अवतरित होते है । स्वयं मुक्त हो हुए भी शरीर धारण करके पुन: संसारी बनते है। केवल दूसरों को मुक्ति दिलाने में शूरवीर बनकर वह कार्य-कारण सिद्धान्त का विचार किये बिना ही लोक भीरू बनते है । यह है अपनी आत्मा का विचार सूत्रकृतांग सूत्र में वर्णित वादों का दार्शनिक विश्लेषण / 313 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003613
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra Ka Darshanik Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNilanjanashreeji
PublisherBhaiji Prakashan
Publication Year2005
Total Pages436
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Philosophy, & agam_related_other_literature
File Size18 MB
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