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किये बिना ही दूसरों की आत्माओं का उद्धार या सुधार करने की मूढता । ''2 समीक्षा
उपरोक्त विवेचन से स्पष्ट हो जाता है कि अवतारवाद की मान्यता निर्मूल और आधारहीन है। इसलिये शास्त्रकार महर्षि इन अवतारवादियों तथा जो स्वकल्पित सिद्धि में ही मुक्ति की प्राप्ति मानते है एवं उसी की प्रशस्ति करते हुए अपने आशय में आसक्त है, उनके एकान्त आग्रह को मिथ्यात्व से ग्रस्त मानते है । ये तथाकथित लौकिक सिद्धिवादी वास्तविक सिद्धि से दूर होकर अनादि संसार में अनन्तकाल तक विविध योनियों में परिभ्रमण करते रहते हैं ।
प्रथम श्रुतस्कन्ध के 15वें आदान अध्ययन की 7वीं गाथा में भी अवतारवाद का इसी प्रकार खण्डन किया गया है कि जो पुरुष कोई कर्म नहीं करता, उसके नवीन कर्मों का बंध नहीं होता। वह पुरुष अष्टविध कर्मों को जानकर ऐसा पुरुषार्थ करता है, जिससे वह न तो कभी संसार में जन्म लेता है, न कभी मरता है।
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सन्दर्भ एवं टिप्पणी
सूत्रकृतांग चूर्णि पृ. 43 : तेरासिइया इदाणिं ते वि कडवादिनो चेव । सूत्रकृतांग वृत्ति पत्र 45: त्रैराशिका गोशालक मतानुसारिणः ।
(अ) नंदिहरिभद्रया वृत्ति पृ. 87 : त्रैराशिकाश्चाजीविका एवोच्यन्ते । (ब) समवायांगवृत्ति अभयदेवसूरि पृ. - 130 : ते एव च आजीवकास्त्रैराशिका भणिताः ॥
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(क) सूत्रकृतांग चूर्णि पृ. 43 : स मोक्ष प्राप्ततोऽपि भूत्वाकीलावणप्पदोसेण रजसा अवतास्ते । तस्य हि स्वशासन पुण्यमानं दृष्ट्वा अन्यशासनान्य पूज्य मानानि चक्रीड़ा भवति, मानस प्रमोद इत्यर्थ, अपूज्यमाने व प्रदोष: निर्मलपटवदुप भुज्यमानः कृष्णानि कर्माण्युपचित्य स्व गौरवात्तेन रजसाऽवतार्यते ।
(ख) सूत्रकृतांग वृत्ति पत्र - 46
ज्ञानिनो धर्म तीर्थस्य कर्त्तारः परमं पदम् । गत्वाऽऽगच्छन्ति भूयोऽपि भवं तीर्थनिकारतः ॥ श्रीमद् भगवद्गीता अ. 4 / 7-8 : यदा यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत । अभ्युत्थानं अधर्मस्य तदात्मानं सृजाम्यहम् ।। 7 ।। परित्राणाय साधूनां विनाशाय च दुष्कृताम् । धर्म संस्थापनार्थाय सम्भवामि युगे युगे ॥8 ॥
314 / सूत्रकृतांग सूत्र का दार्शनिक अध्ययन
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