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हो सकती है ? जिस प्रकार बीज के जल जाने पर, नष्ट हो जाने पर उस का अंकुरित होना असम्भव है, उसी प्रकार कर्म रूपी बीज के नष्ट हो जाने पर संसार रूप अंकुर का फूटना, पुनः जन्म लेना पूर्णतया असम्भव है । '
4. मुक्तात्मा के पुन: संसार में आने से संसार तथा मोक्ष एवं संसारी एवं मुक्त आत्मा में कोई अन्तर नहीं रहेगा । मोक्ष एवं मुक्त आत्मा के अस्तित्व पर भी प्रश्न चिह्न लग जायेगा क्योंकि गीता में कहा है - यद्गत्वा न निवर्त्तन्ते तद्धाम परमं मम ।
जहाँ जाकर जीव पुनः नहीं लौटते, वह मेरा (परमात्मा) परमधाम (सिद्ध गति नामक स्थान) है।
5. इस संसार में जप-तप-ध्यान-साधना आदि जितनी भी क्रियाएँ की जाती है, इन सबका अन्तिम उद्देश्य कर्म मुक्ति और मोक्ष प्राप्ति ही है। यदि राग, द्वेष, काम, क्रोध आदि कषाय मल से सर्वथा मुक्त होने पर भी आत्मा पुनः उन्हीं में लिप्त हो जाये तो फिर सारी धर्मक्रियाएँ व्यर्थ हो जायेगी ।
6. अवतारवादी ऐसा स्पष्ट मानते है कि मुक्त जीव राग-द्वेष से रहित है । फिर राग-द्वेष रहित व्यक्ति के लिये स्वशासन या परशासन का भेद कहाँ रहा जाता है ? जो सारे संसार को एकत्व, आत्मौपम्य की दृष्टि से देखता है, वहाँ अपने-पराये का भेद हो ही नहीं सकता। जिसकी आसक्ति, अहंता, ममता आदि सारी अशुभप्रवृत्तियाँ नष्ट हो चुकी है, जो राग-द्वेष रूप समस्त कर्मसमूह का क्षय कर चुके है, जो सम्पूर्ण संसार और समस्त पदार्थों के यथार्थ स्वरूप को जानते है, निन्दा और स्तुति में जिनकी तुल्यवृत्ति है, ऐसे शुद्ध, निष्पाप आत्मा अपने का कोई मोह है, न पराये का कोई द्वेष । फिर वे अपने भूतपूर्व शासन के उत्थान - पतन का विचार कैसे कर सकते है ?
स्वअनुष्ठान से ही मुक्ति
अवतारवाद के विश्लेषण के साथ शास्त्रकार ने विभिन्न मतवादियों की मनोवृत्ति का परिचय भी दिया है, जो एकान्त आग्रह रखते हुए स्वयं के मत में ही सिद्धि प्राप्त होने का दावा करते है । 'सए सए उवट्ठाणे सिद्धिमेव न अन्नहा' अर्थात् 'मनुष्य हमारे मत में प्रतिपादित अनुष्ठान करने से ही मुक्ति को प्राप्त करता है, अन्य प्रकार से नहीं ।' तात्पयार्थ यह है कि कई दार्शनिक एकान्त ज्ञान से या क्रियाकाण्ड से अथवा अष्ट भौतिक ऐश्वर्य प्राप्ति से या अन्य लौकिक
312 / सूत्रकृतांग सूत्र का दार्शनिक अध्ययन
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