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है। वे कहते है कि भगवान सज्जनों की रक्षा एवं दुर्जनों का संहार करने रूप लीला करते है । ऐसे समय में जब वे दुष्टों का नाश करते है, तब अपने भक्त की हर सम्भव रक्षा करते है। ऐसा करते समय उनमें एक के प्रति राग एवं दूसरे के प्रति द्वेष होना स्वाभाविक है । इसलिये पुनरागमन का कारण यहाँ 'कीड़ापदोसेणं' पद द्वारा अभिव्यक्त किया गया है।
अवतारवाद का खण्डन
शास्त्रकार ने अवतारवादियों के मत को मिथ्या एवं युक्तिरहित बताया है। एक बार जो आत्मा कर्मरज से रहित होकर विशुद्ध आत्म-स्वरूप को प्राप्त कर लेता है, उसके लिए संसार में पुनः आगमन कैसे सम्भव है ? क्योंकि प्रत्येक कार्य किसी न किसी कारण से ही उत्पन्न होता है, यह न्याय वाक्य है । जिन मुक्तात्माओं के मिथ्यादर्शनादि कर्मबंध के कारण सम्पूर्णतः समाप्त हो चुके है एवं विशुद्ध, ज्योतिर्मय आत्मस्वरूप प्रकट हो चुका है, वे पुन: किस कारण से कर्मरज से युक्त होकर संसार में अवतरित होते है ? यदि मुक्तात्मा का संसार पुनरागमन माना जाये तो कई दोषापत्तियाँ आयेगी।
में
1. आत्मा की पूर्ण विशुद्धि रूप अन्तिम मुक्ति का अस्तित्व खतरे में पड़ जायेगा क्योंकि आत्मा जब वहाँ से पुनः संसार में लौटती है, तो यह स्पष्ट हो ता है कि या तो वह पूर्ण रूप से मुक्त हुआ नहीं है या पूर्ण कर्मक्षय रूप अन्तिम मोक्ष नाम का कोई स्थान ही नहीं है ।
2. मुक्तात्मा को जब संसार में पुनः आना ही है तो वह गया ही क्यों ? यदि ऐसा कहे कि संसार में सज्जनों की रक्षा एवं दुष्टों के त्रास को समाप्त करने की करुणामयी भावना से प्रेरित होकर ही वह संसार में आता है। तो यह कथन भी युक्तिसंगत नहीं है, क्योंकि संसार सदैव दुःख एवं क्लेश से परिपूर्ण है, था और रहेगा। ऐसा कोई भी समय न आया, न आयेगा जब संसार पूर्णतया दुःख और क्लेश से रहित, सुखी हो जाये। जब वह मुक्ति में गया था, तब क्या इस जगत में दुःखों का अभाव हो गया था ? यदि दुःखाभाव हो चुका था तो पुनः उसका सद्भाव किससे और कैसे हो गया, जिसे दूर करने हेतु उसे अवतार लेना पड़ा ?
3. अवतारवादियों की यह मान्यता कार्य-कारणभाव सिद्धान्त के भी विरूद्ध है। जिस आत्मा के कर्मबीज सर्वथा जल चुके है, वह आत्मा पुनः कर्मयुक्त कैसे
सूत्रकृतांग सूत्र में वर्णित वादों का दार्शनिक विश्लेषण / 311
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