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1.
2.
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है
राग
ग-द्वेष सहित कर्मफल से अशुद्ध आत्मा की अवस्था ।
शुद्ध आचरण द्वारा निष्पाप होकर विशुद्ध अवस्था प्राप्त कर मुक्ति में पहुँच जाना ।
3. विशुद्ध आत्मा का क्रीड़ा, राग अथवा प्रद्वेष के कारण पुन: से लिप्त हो जाना ।
इस अवस्थात्रय की मान्यता के कारण ये त्रैराशिक कहलाते है। चूर्णिकार प्रस्तुत प्रसंग में त्रैराशिक मत की मान्यता को इस प्रकार व्याख्यायित किया
कोई जीव मोक्ष प्राप्त कर लेने पर भी अपने धर्म तथा शासन की पूजा और अन्यान्य धर्मशासनों की अपूजा देखकर मन ही मन प्रसन्न होता है और अपने शासन की अपूजा देखकर अप्रसन्न भी होता है। इस प्रकार सूक्ष्म और आन्तरिक राग-द्वेष के वशीभूत होकर पुनः मनुष्य भव में जन्म लेता है। जैसे
स्वच्छ जल पुनः सरजस्क, मलिन हो जाता है, वैसे ही राग-द्वेष रूपी रज से मलिन होकर आत्मा पुनः संसार में अवतरित होता है। मनुष्य जीवनकाल में प्रव्रज्या ग्रहण कर संवृतात्मा श्रमण होकर मुक्त हो जाता है और फिर से मलिन होकर संसार में अवतरित होता है। यह क्रम चलता ही रहता है। प्रस्तुत प्रसंग क्रीड़ा का अर्थ मानसिक प्रसन्नता या राग तथा प्रदोष का अर्थ द्वेष है। इस सन्दर्भ में वृत्तिकार और चूर्णिकार का मत भी अभिन्न ही है । 1
बौद्धधर्म के एक सम्प्रदाय में तथा कुछ अन्य वैष्णवादि सम्प्रदायों में भी इस प्रकार की मान्यता स्वीकृत है। बौद्धों का कथन है कि सुगत (बुद्ध) आदि देव मोक्षावस्था को प्राप्त करके भी अपने शासन का लोप या तिरस्कार देखकर उद्धारार्थ संसार में पुनः अवतरित होते है । '
वैदिक धर्म के मूर्धन्य ग्रन्थ भगवद्गीता में धर्म का ह्रास और अधर्म का उत्थान होने पर मुक्तात्मा के संसार में पुनः अवतरित होने का स्पष्ट उल्लेख है । 'जब-जब संसार में धर्म की हानि और अधर्म की वृद्धि होने लगती है, तब-तब मैं (मुक्तात्मा) ही अपने रूप का सृजन करता हूँ। साधु पुरुषों की रक्षा, दुष्कृत का नाश तथा धर्म की स्थापना करने के लिये मैं युग-युग में जन्म (अवतार) लेता हूँ।' इस कथन में मुक्ति से संसार में पुनरागमन स्पष्टतया व्यक्त होता है । ' सूत्रकार मुक्त आत्मा के संसार में अवतरित होने के दो कारणों का उल्लेख करते है- क्रीड़ा एवं प्रदोष । अवतारवादियों के अनुसार क्रीड़ा का अर्थ लीला 310 / सूत्रकृतांग सूत्र का दार्शनिक अध्ययन
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कर्ममल
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