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उत्पाद, व्यय एवं ध्रौव्यात्मक है। इसमें न तो नये सत् का उत्पाद होता है, न प्राप्त सत् का विनाश। यह लोक संसारी एवं सिद्ध दोनों जीवों का स्थान है। अष्ट कर्म से रहित जीव (सिद्ध) इसी लोक के अन्त (लोकान्त) या अग्र (लोकाग्र) भाग में स्थित है। यह लोक उपर से नीचे तक चौदह रज्जू प्रमाण है। इसकी आकृति रंगशाला में कमर पर दोनों हाथ रखकर नाचने के लिये खड़े सिर रहित पुरुष जैसी है, जिसका अधोलोक नीचे मुँह (औंधा मुँह) करके रखे हुए सकोरे के आकार के समान आकार वाले सात नरकों से युक्त है तथा मध्य लोक थाली के समान आकार वाले असंख्यात द्वीप समुद्रों से युक्त है। इसी प्रकार सीधा एवं उल्टा मुँह किये दो सकोरो के समान उर्ध्वभाग उर्ध्वलोक से युक्त है। लोक का सबसे अन्तिम भाग लोकाग्र है, जिसे सिद्धशिला (मुक्त जीवों का स्थान) कहा जाता है। सिद्धशिला इस लोक का अन्तिम भाग है। इसके आगे अलोक है, जिसमें धर्म, अधर्म, काल, पुद्गल, जीव का सर्वथा अभाव है। मात्र आकाश होने से इसे अलोकाकाश भी कहा जाता है। यह अनन्त प्रदेशी है। यहाँ धर्म, अधर्म का अभाव होने से जीव एवं पुद्गलों में गति एवं स्थिति सम्भव नहीं है।"
इस प्रकार जैन दर्शन के अनुसार मात्र लोक ही समस्त चराचर जगत का आधार है। इस लोक की न आदि है, न अन्त। यह अनादि काल से विद्यमान है और अनन्त काल तक चलता रहेगा। इस लोक का न कोई कर्ता है, न कोई नियन्ता । यह किसी एक मूल तत्त्व द्वारा निष्पन्न नहीं है। मूल तत्त्व दो है- चेतन एवं अचेतन । ये दोनों ही अपने-अपने पर्यायों द्वारा बदलते रहते है एवं सृष्टि का हास एवं विकास होता रहता है।
सन्दर्भ एवं टिप्पणी (क) सूत्रकृतांग चूर्णि पृ. 41 - देवउत्ते .... देवेहि अयं लोगो कतो, उत्त इति बीजवद् वापित: आदिसर्गे ...... देवगुतौ देवैः पालित इत्यर्थः । देवपुत्तो वा देवैर्जनित इत्यर्थः। (ख) सूत्रकृतांग वृत्ति पत्र - पृ. 43 देवेनोप्तो देवोप्त, कर्षकेणेव वीज वपनं कृत्या निष्पादितोऽयं लोक इत्यर्थः, देवैर्वा गुप्तो- रक्षितो देवगुप्तो देव पुत्रो वा। (क) छान्दोग्योपनिषद् अ. - 5 खण्ड - 12 से 18 तक (ख) एतरेयोपनिषद् - प्रथम खण्ड सूत्रकृतांग वृत्ति पत्र - 42, तथा ब्रह्मणाउप्त ब्रह्मोप्तोऽयं लोक इत्यपरे एवं व्यवस्थिता:,
तथाहि तेषामयमभ्युपगम:- ब्रह्मा जगत्पितामहः, स चैक एव जगदादावासीत्तेन 306 / सूत्रकृतांग सूत्र का दार्शनिक अध्ययन
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