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तर्क और प्रमाणों को भी बलपूर्वक प्रस्तुत किया है । परन्तु वृत्तिकार ने उन सभी तर्कों को निरस्त कर दिया है । जगत की उत्पत्ति न ब्रह्मा या स्वयंभू द्वारा सम्भव है, न अमूर्त अचेतन और अव्यक्त प्रकृति द्वारा सम्भव है । जगत्कर्तृत्ववाद सम्बन्धी ये सारी परिकल्पनाएँ निरर्थक, प्रमाणबाधित एवं अनुभव से असिद्ध है ।
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शास्त्रकार ने इसी सन्दर्भ में 'जीवाजीव समाउत्ते सुहदुक्ख समन्निए' इस पाठ द्वारा कृतवादियों के मत को प्रस्तुत किया है कि ईश्वर या प्रकृति जीवाजीव से समन्वित सुख - दु:ख युक्त लोक का निर्माण करते है। जब इस सृष्टि का कोई कर्त्ता सिद्ध नहीं होता, तो जीव के सुख-दुःख का कोई कर्त्ता कैसे सिद्ध होगा ? शास्त्रकार की दृष्टि में वे मिथ्यावादी तत्त्व के वास्तविक स्वरूप से अनभिज्ञ है, इसलिये इस प्रकार की प्ररूपणा करते है ।
जैन दर्शन में सृष्टिविषयक मान्यता
जैन दर्शन के अनुसार सृष्टि अनादि - अपर्यवसित है । पूर्वोक्त मतवादी इसे किसी न किसी का कार्य मानते है, इस कारण इसे अनित्य, अशाश्वत और विनाशी मानते है, परन्तु जैन दर्शन के अनुसार यह जगत विनाशी या शाश्वत नहीं है। वस्तुत: देखा जाये तो यह लोक द्रव्यार्थिकनय की अपेक्षा से नित्य, शाश्वत और अविनाशी है एवं पर्यायार्थिक नय की अपेक्षा से अनित्य और अशाश्वत है ।
भगवान महावीर से शिष्य ने जब सृष्टि के विषय में प्रश्न किया कि भंते ! पहले लोक हुआ या अलोक ? तो भगवान ने उसकी जिज्ञासा को उपशान्त करते हुए कहा- रोह ! लोक और अलोक, दोनों अनादि है। इसमें पौवापर्य सम्बन्ध सम्भव नहीं है। इसके लिये उन्होंने अण्डे और मुर्गी का उदाहरण दिया ।" जहाँ हम रहते है, वह लोक है। लोक में आकाश, धर्म, अधर्म, काल, जीव और पुद्गल की सह-स्थिति है।“ अलोक में मात्र आकाश ही है । द्रव्य (सत्) से परिपूर्ण इस सृष्टि को जैन दर्शन में लोक कहा जाता है। भगवान महावीर ने इस सम्पूर्ण सृष्टि को षट्द्रव्यों से परिव्याप्त बताया है। जैन सिद्धान्तों के प्रकाश में अभेदात्मक अपेक्षा से इस सृष्टि को द्रव्यमय और भेदात्मक दृष्टि से षट्द्रव्यमय कहा जा सकता है।"
मूलाचार के अनुसार यह विश्व अनंतानंत सत् का विराट सागर है और अकृत्रिम है। किसी व्यक्तिविशेष या ईश्वर द्वारा रचित नहीं है । " सम्पूर्ण जगत्
सूत्रकृतांग सूत्र में वर्णित वादों का दार्शनिक विश्लेषण / 305
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