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________________ का प्रयोजन सिद्ध करने के लिये प्रवृत्त होती है, तब तो प्रकृति की अपेक्षा स्वभाव ही अधिक बलवान हुआ जो प्रकृति का नियन्त्रण करता है। यदि ऐसा ही है, तो जगत् का कारण भी स्वभाव ही मानना युक्ति-युक्त होगा, न कि अदृष्ट की कल्पना । स्पष्ट है कि प्रधान (प्रकृति) जगत् का कर्त्ता सिद्ध नहीं हो सकता । इसी प्रकार कुछ मतवादी स्वभाव एवं नियति आदि को भी जगत का कारण मानते है। जैन दर्शन के अनुसार स्वभाव आदि एकान्त रूप से जगत की उत्पत्ति का कारण नहीं हो सकते किन्तु कथंचित् स्वभाव को जगत का कारण मानने में कोई आपत्ति नहीं है । यदि स्वभाव का अर्थ- स्व-स्वयं (अपनी ), भावउत्पत्ति है, तो इस अपेक्षा से स्वभाव को जगत का कारण मानना जैन दर्शन को मान्य है । नियतिवादियों के अनुसार जगत् एकान्त नियतिकृत है। वह भी दूषित कथन है किन्तु कथंचित् नियति को जगत का कारण माना जा सकता है अथवा सूक्ष्मतया चिन्तन करे तो नियति भी स्वभाव से अतिरिक्त नहीं, क्योंकि जो पदार्थ जैसा है, उसका वैसा होना नियति है । (4) स्वयंभू रचित लोक की कल्पना भी असत् है स्वयंभू शब्द का व्युत्पत्यर्थ है - जो अपने आप होता है। प्रश्न होता है कि जो बिना किसी कारण स्वतः होता है, वह स्वयंभू कहलाता है या जो अनादि है वह ? यदि अपने आप होने से वह स्वयंभू है, तो लोक को भी अपने आप (स्वयंभू) मानने में क्या दोष है ? यदि स्वयंभू (ईश्वर) अनादि है, तो वह जगत का कर्त्ता नहीं हो सकता क्योंकि जो अनादि होता है, वह नित्य होता है और नित्य पदार्थ सदा एकरूप, अपरिवर्तनशील होता है इसलिये वह नित्य, स्वयंभू ईश्वर जगत का कर्त्ता सिद्ध नहीं हो सकता । यदि स्वयंभू वीतराग है, तो वह तटस्थ एवं उदासीन होने से विचित्र लोक की उत्पत्ति नहीं कर सकता। यदि सराग माने तो सामान्य व्यक्ति होने से विश्वकर्त्ता नहीं हो सकता। फिर यदि वह स्वयंभू अमूर्त है, तो मूर्त्तिमान् जगत की रचना उसके द्वारा असम्भव है। और यदि मूर्त है, तो उसके उत्पत्तिकर्त्ता की परम्परा खड़ी होगी, जिससे अनवस्था दोष का प्रसंग आ पड़ेगा ।" स्वतः सिद्ध है कि जगत् स्वयंभू द्वारा रचित नहीं है । सूत्रकृतांग सूत्र में वर्णित वादों का दार्शनिक विश्लेषण / 303 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003613
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra Ka Darshanik Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNilanjanashreeji
PublisherBhaiji Prakashan
Publication Year2005
Total Pages436
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Philosophy, & agam_related_other_literature
File Size18 MB
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