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जाल में फँसाकर क्यों दुःखी कर दिया?
यदि यह कहे कि ईश्वर ने ही कर्म की स्वतन्त्रता प्रदान की है, सुमार्गकुमार्ग का चयन जीव की अपनी सोच है, तो वह परमपिता सर्वज्ञ तथा सर्वशक्तिमान् होते हुये भी अपने पुत्रवत् जीवों को कुमार्ग पर जाते हुये रोकता क्यों नहीं है ? अत: ईश्वरवादियों की प्रत्येक युक्ति यथार्थ से रहित एवं प्रमाण से बाधित है।
___ईश्वर न तो लोक का सर्जन करता है, न ही कर्मों का। और न ही लोकगत जीवों के शुभाशुभ कर्मफल का संयोग करता है। लोक तो स्वभावत: स्वयं प्रवर्तित है, चल रहा है।" (3) लोक प्रधानादिकृत है, यह धारणा भी असंगत है
सांख्य दर्शन के अनुसार जगत प्रधानादिकृत है। प्रधान अविकृत है जो कि सत्व, रजस, तमस् की साम्यावस्था रूप है किन्तु उस अविकृत प्रधान से महत् आदि तत्वों की उत्पत्ति मानना तो विकृति है, इसलिये विकृत प्रधान से महत् आदि तत्त्वों की उत्पत्ति मानना जैसे सांख्य मत को इए नहीं है, उसी प्रकार अविकृत प्रधान से जगत की उत्पत्ति मानना भी अभीष्ट एवं संगत नहीं हो सकता।
प्रकृति स्त्री है, ऐसा मानने. पर यह प्रश्न होता है कि वह मूर्त है या अमूर्त? यदि अमूर्त है, तो उससे जगत के मूर्तिमान पदार्थों की उत्पत्ति नहीं हो सकती क्योंकि मूर्त-अमूर्त का परस्पर कार्य-कारणभाव विरूद्ध है। अमूर्त आकाश से किसी भी वस्तु की उत्पत्ति नहीं देखी जाती। यदि वह मूर्त है, तो स्वयं किससे उत्पन्न हुई ? स्वत: उत्पत्ति कहने पर इस लोक के भी स्वत: उत्पन्न होने की आपत्ति आयेगी। यदि अन्यत: उत्पन्न है, तो अन्य से उस अन्य की उत्पत्ति एवं उस अन्य से उस अन्य की उत्पत्ति माननी पड़ेगी, जिससे अनावस्था दोष का प्रसंग उपस्थित होगा। अत: जैसे उत्पन्न हुए बिना ही प्रधान (प्रकृति) अनादिभाव से स्थित है, उसी प्रकार लोक को भी अनादि मानने में कोई दोष नहीं हैं।
सांख्यमतवादी प्रकृति को अचेतन कहते है। वह अचेतन प्रकृति चेतन पुरुष का प्रयोजन सिद्ध करने में कैसे समर्थ हो सकती है, जिससे आत्मा का भोग सिद्ध होकर सृष्टि रचना हो सके ?
. यदि कहे कि अचेतन होने पर भी प्रकृति का यह स्वभाव है कि वह पुरुष
302 / सूत्रकृतांग सूत्र का दार्शनिक अध्ययन
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