________________
पुरुष के घाव भरने में शस्त्र क्रिया (ऑपरेशन या शल्यचिकित्सा) और औषध ही कारण थे परन्तु इस घाव के साथ जिसका कोई सम्बन्ध नहीं है, उस हूँठ को घाव भरने का कारण क्यों नहीं माना जा सकता। अतः जिस वस्तु का जो कारण प्रत्यक्ष देखा जाता है, उसे न मानकर जो न देखा जाये उसे, उसका कारण मानना सर्वथा असगंत है । "
इसके अतिरिक्त भवन आदि का कर्त्ता सावयव, अव्यापक, अनित्य और परतन्त्र देखा जाता है। यदि ईश्वर को जगत का कर्ता माना जायेगा तो वह भी सावयव, अव्यापक, अनित्य और परतन्त्र ही सिद्ध होगा। इसके विपरीत निरवयव, स्वतन्त्र और नित्य ईश्वर की सिद्धि के लिये कोई दृष्टान्त नहीं मिलता इसलिये व्याप्ति की सिद्धि न होने से निरवयव नित्य ईश्वर का अनुमान सिद्ध न होगा ।
जिस प्रकार कार्यत्व हेतु ईश्वर की सिद्धि नहीं कर सकता, वैसे ही पूर्वोक्त अन्य हेतु भी ईश्वर के कर्मत्व सिद्धि के लिये समर्थ नहीं है।
यदि ईश्वरवादी यह कहे कि ईश्वर अमूर्त और अदृश्य है अत: दिखाई नहीं दे सकता, तो प्रश्न होता है कि वह शरीरधारी है या शरीररहित ? यदि शरीररहित है, तब तो सृष्टि की रचना कैसे करेगा ? यदि शरीरधारी है, तो वह शरीर नित्य है या अनित्य ? नित्य इसलिये नहीं हो सकता क्योंकि सावयव है। जो-जो सावयव होते है, वे सब पदार्थ घट - पटादि की तरह अनित्य होते है । यदि शरीर अनित्य है, तो उसे किसने बनाया ? यदि ईश्वर ने स्वयं ही बनाया है, तो इससे पहले भी ईश्वर के शरीर को मानना पड़ेगा। इस प्रकार उत्तरोत्तर शरीर रचना के लिये पूर्व - पूर्व शरीर को मानने पर अनवस्था दोष आ पड़ेगा। ऐसी दशा में कार्य की सिद्धि नहीं होगी ।
ईश्वर जीवों को अपने कर्मों के अनुसार सुख, दुःख, स्वर्ग, नरक देता है। यह कहना भी अयथार्थ है, क्योंकि इससे यह प्रश्न उत्पन्न होता है कि ईश्वर
सृष्टि रचना के समय जीव कर्मसहित होता है या कर्मरहित ? यदि कर्म सहित था, तो उन कर्मों का कर्त्ता कौन? यदि उन कर्मों का कर्त्ता उन जीवात्माओं को ही माना जाये तो ईश्वर का कर्तृत्व समाप्त हो जायेगा और कार्यरूप हेतु भी दूषित हो जायेगा क्योंकि जो भी कार्य है, वे ईश्वर द्वारा कृत है। यदि उन कर्मों को भी ईश्वर ने ही बनाया है, तब तो ईश्वर की दयालुता और करुणा पर प्रश्नचिह्न लग जायेगा कि ईश्वर ने उन अकर्मक, शुद्ध और सुखी आत्माओं को
सूत्रकृतांग सूत्र में वर्णित वादों का दार्शनिक विश्लेषण / 301
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org