SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 305
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ पूर्वोक्त दोषापत्तियाँ आ पड़ेगी। जब देवकृत या ब्रह्मकृत जगत ही सिद्ध नहीं होता तो उनके द्वारा गुप्त या पुत्र रूप जगत का होना स्वतः खण्डित हो जाता है। (2) ईश्वरकर्तृत्व की मान्यता प्रमाण से असिद्ध एवं अनुभव से बाधित है ईश्वरकर्तृत्ववादी ईश्वर को जगत कर्ता सिद्ध करने के लिये अनेक असंगत युक्तियों का सहारा लेते है। उन्होंने जिस अनुमान प्रमाण का उपयोग किया है, वह भी असिद्ध है । जगत के विभिन्न पदार्थ घट, पट आदि कार्य है । इनके द्वारा यह अनुमान होता है कि इनका कोई न कोई कर्त्ता अवश्य है, क्योंकि ये सब उसके कार्य है परन्तु यह अनुमान नहीं हो सकता कि ये सब कार्य अमुक व्यक्ति द्वारा निर्मित है। क्योंकि जो कार्य है, वे सब कर्ता द्वारा किये हुये है, इस प्रकार कार्य की व्याप्ति कारण में गृहीत होती है । किन्तु जो-जो कार्य होता है, वह अमुक व्यक्ति द्वारा निर्मित होता है, इस प्रकार कार्य की व्याप्ति विशिष्टकारण में गृहीत नहीं होती। घट को देखकर मात्र कुम्हार रूप कर्ता का ही अनुमान होता है। किसी अमुक अमुक नाम वाले विशिष्ट कुम्हार का नहीं । इसी प्रकार यह कहा जा सकता है कि जगत किसी कारण से उत्पन्न हुआ है परन्तु यह कहना असंगत है कि जगत अमुक विशिष्ट कारण से उत्पन्न हुआ. है। इसी प्रकार किसी कार्यविशेष का कर्ता यदि प्रत्यक्ष देखा जाता है, तभी उस विशिष्ट कार्य को देखकर व्यक्ति उसके कर्ता का अनुमान करता है परन्तु जो वस्तु अत्यन्त अदृश्य है, उसमें यह प्रतीति कदापि नहीं हो सकती । अर्थात् जिसकी रचना करता हुआ कोई व्यक्ति कभी दृष्टिगत ही न हुआ हो, उस वस्तु को देखकर उसके विशिष्ट कर्ता का अनुमान सर्वथा दोषपूर्ण ही है । यदि यह कहे कि घट को देखकर उसके कर्ता कुम्हार का अनुमान होता है और वह कुम्हार कार्य का कर्ता है, इसी प्रकार जगत को देखकर उसके विशिष्ट कर्ता ईश्वर का अनुमान किया जा सकता है, तो यह कथन अयुक्तिसंगत है क्योंकि घट, जो कि विशिष्ट प्रकार का कार्य है, उसका कर्ता कुम्हार उसे करता हुआ प्रत्यक्ष देखा जाता है, अत: घट से कुम्हार का अनुमान तो हो सकता है परन्तु जगत को देखकर ईश्वर का अनुमान इसलिये नहीं किया जा सकता क्योंकि नदी, समुद्र, पर्वत बनाता हुआ ईश्वर प्रत्यक्ष नहीं देखा जाता। अतः जगत को देखकर किसी सूत्रकृतांग सूत्र में वर्णित वादों का दार्शनिक विश्लेषण / 299 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003613
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra Ka Darshanik Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNilanjanashreeji
PublisherBhaiji Prakashan
Publication Year2005
Total Pages436
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Philosophy, & agam_related_other_literature
File Size18 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy