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________________ है, वह नाशवान होता है परन्तु जगत एकान्तत: ऐसा नहीं है। . वृत्तिकार ने इन समस्त कृतवादियों की असंगत और प्रमाणविरुद्ध युक्तियों का अकाट्य तर्कों के साथ खण्डन करते हुए जैन दर्शन के अनुसार जगत के यथार्थ स्वरूप को प्रस्तुत किया है। (1) देवोप्त तथा ब्रह्मोप्त जगत की धारणा सर्वथा मिथ्या है देवकृतवादी जगत को देवकृत मानते है परन्तु इसके पक्ष में ऐसा कोई प्रबल प्रमाण प्रस्तुत नहीं करते। यदि जगत देवकृत है, तो देव इस सृष्टि को स्वयं उत्पन्न होकर बनाता है अथवा उत्पन्न हुए बिना बनाता है। स्वयं उत्पन्न हुए बिना इस लोक को बनाना असम्भव है क्योंकि गधे के सींग की तरह जो स्वयं अविद्यमान है, वह किसी अन्य को उत्पन्न कैसे कर सकता है ? यदि देव उत्पन्न होकर बनाता है, तो वह स्वत: उत्पन्न होता है या किसी अन्य के द्वारा उत्पन्न किया जाता है। यदि वह स्वयमेव उत्पन्न होता है, तो इस जगत् को भी स्वतः उत्पन्न मानने में क्या आपत्ति है? यदि ऐसा कहे कि वह देव किसी दूसरे देव द्वारा उत्पन्न होकर इस लोक की रचना करता है, तो दूसरा देव तीसरे से उत्पन्न होगा, तीसरा चौथे से। इस प्रकार अनवस्था दोष आयेगा।" इस प्रकार देवकृत लोक की किसी भी प्रकार से सिद्धि नहीं होगी। देवकृतवादी देव को अनादि मानने का आग्रह करते है। यदि वह अनादि है तो जगत को भी अनादि मान लेना चाहिये। वृत्तिकार ने जगत्कर्तृत्ववादियों के समक्ष यह प्रश्न किया है कि वह देव अनादि होने पर नित्य है या अनित्य है ? यदि नित्य है तो वह क्रमश: या एक साथ भी अर्थक्रिया नहीं कर सकता। क्योंकि जो पदार्थ नित्य है, उसका स्वभाव परिवर्तित नहीं होता। और स्वभाव में परिवर्तन हुए बिना पदार्थ से क्रियाएँ नहीं हो सकती। यदि वह देव अनित्य है, तो उत्पत्ति के पश्चात् स्वयं विनाशी होने से स्वयं की रक्षा भी स्वयं नहीं कर सकता तो फिर उससे किसी अन्य की उत्पत्ति के व्यापार की चिन्ता असम्भव इसी प्रकार वह देव मूर्त है या अमूर्त ? यदि अमूर्त है, तब आकाश की तरह अकर्ता ही है। यदि वह मूर्त है, तो कार्य की उत्पत्ति के लिये सामान्य पुरुष की तरह उसे भी उपकरणों की अपेक्षा रहेगी। ऐसी दशा में वह जगतकर्ता मिथ्या ही सिद्ध होगा। इसी प्रकार ब्रह्मा को भी जगत् का रचयिता मानने पर 298 / सूत्रकृतांग सूत्र का दार्शनिक अध्ययन Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003613
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra Ka Darshanik Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNilanjanashreeji
PublisherBhaiji Prakashan
Publication Year2005
Total Pages436
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Philosophy, & agam_related_other_literature
File Size18 MB
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