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________________ 7. अण्डे से उत्पन्न लोक 'अण्डकडे लोए' अर्थात् यह सम्पूर्ण चराचर जगत् अण्डे से उत्पन्न हुआ है। चूर्णिकार का मन्तव्य है कि ब्रह्मा ने अण्डे का सर्जन किया। जब वह फूटा तब सारी सृष्टि प्रकट हुई।" वृत्तिकार के अनुसार, जब कोई भी वस्तु नहीं थी, सारा संसार पदार्थशून्य था, तब ब्रह्मा ने पानी में अण्डे की सृष्टि की। वह बड़ा हुआ। जब वह दो भागों में विभक्त हुआ तब एक भाग उर्ध्वलोक, दूसरा भाग अधोलोक और उनके मध्य में पृथ्वी, पानी, अग्नि, वायु, आकाश, समुद्र, नदी, पर्वत आदि की संस्थिति हुई। वृत्तिकार ने इस सन्दर्भ में एक श्लोक उद्धृत करते हुए बताया है कि सृष्टि के आदिकाल में यह जगत् तमसरूप, अज्ञात, अविलक्षण, अतर्य, अज्ञेय तथा चारों तरफ से सोया हुआ था। ब्रह्मा ने ही अण्डा आदि क्रम से इस सृष्टि की रचना की। ब्रह्माण्ड शब्द ब्रह्म+अण्ड से निष्पन्न है। इसीसे इसकी उत्पत्ति का आधार स्पष्ट है। मनुस्मृति में भी अण्डे से ब्रह्मा के उत्पन्न होने की कल्पना की गयी जगत्कर्तृत्ववाद का खण्डन शास्त्रकार ने पूर्वोक्त देवोप्त, ब्रह्मोप्त, ईश्वरकृत, प्रधानकृत, स्वयंभूकृत, मारकृत एवं अण्डकृत जगत् की कल्पना करने वाले समस्त मतवादियों को 'अयाणंता मुसं वए' वस्तु तत्व से अज्ञात होने से मृषावादी कहा है। ये विभिन्न मतवादी अपने-अपने अभिप्रायानुसार सृष्टि रचना सम्बन्धी मान्यताएँ प्रस्तुत करते है। सूत्रकार के अनुसार वस्तुत: वे तत्त्वस्वरूप से अज्ञ है। क्योंकि यह जगत् कदापि विनाशवान नहीं अपितु शाश्वत है। _मूल गाथाओं में भी यही संकेत उपलब्ध होता है कि कृतवादी अविनाशी लोक को कृत अर्थात् अनित्य-विनाशी मानते है। वे अज्ञानी लोक के यथार्थ स्वरूप से ही अनभिज्ञ है। यह लोक अनादि-अनन्त तथा शाश्वत है। वृत्तिकार इसी पंक्ति की व्याख्या करते है कि वास्तव में यह लोक कमी सर्वथा नष्ट नहीं होता क्योंकि द्रव्य रूप से यह सदा ध्रुव अर्थात् स्थित होता है। यह लोक अतीत में भी था, वर्तमान में भी है, भविष्य में भी रहेगा। अत: यह ब्रह्मा, विष्णु, महेश, ईश्वर, प्रकृति आदि किसी के भी द्वारा कृत नहीं है। क्योंकि जो-जो कृतक होता सूत्रकृतांग सूत्र में वर्णित वादों का दार्शनिक विश्लेषण / 297 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003613
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra Ka Darshanik Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNilanjanashreeji
PublisherBhaiji Prakashan
Publication Year2005
Total Pages436
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Philosophy, & agam_related_other_literature
File Size18 MB
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