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________________ • कहा - सृष्टि का विनाश कैसे कर सकता हूँ ? उन्होंने विश्व प्रकाश से एक स्त्री का निर्माण किया। वह दक्षिण दिशा से उत्पन्न हुई, इसलिये उसका नाम मृत्यु रखा। उसे कहा- तुम प्राणियों का विनाश करो। यह सुनते ही मृत्यु काँप उठी। वह रोने लगी। अरे ! मुझे ऐसा जघन्य कार्य करना होगा। उसकी आँखों से आँसु गिरने लगे। ब्रह्मा ने सारे आँसु इकट्ठे कर लिये। मृत्यु ने पुन: तपस्या की। ब्रह्मा ने कहा- ये लो तुम्हारे आँसु। जितने आँसु हैं, उतनी ही व्याधियाँरोग हो जायेंगे। इनसे प्राणियों का स्वत: विनाश होगा। यह धर्म के विपरीत नहीं होगा। मृत्यु ने बात मान ली।" चूर्णिकार ने इसका विवरण इस प्रकार दिया है - विष्णु ने सृष्टि की रचना की। अजरामर होने के कारण सारी पृथ्वी जीवाकुल हो गयी। भार से आक्रान्त होकर पृथ्वी प्रजापति के सम्मुख उपस्थित हुई। प्रजापति ने प्रलय की बात सोची। सब प्रलय हो जायेगा- यह देखकर पृथ्वी भयभीत होकर काँपने लगी। प्रजापति ने उस पर अनुकम्पा कर व्याधियों के साथ मृत्यु का सर्जन किया। उसके पश्चात् धार्मिक तथा सहज सरल प्रकृति वाले सभी मनुष्य देवलोक में उत्पन्न होने लगे। सारा स्वर्ग उनके अत्यधिक भार से आक्रान्त हो गया। स्वर्ग प्रजापति के पास उपस्थित हुआ। तब प्रजापति ने मृत्यु के साथ माया का सर्जन किया। लोग माया प्रधान होने लगे। वे नरक में उत्पन्न होने लगे। प्रजापति ने स्वर्ग से कहालोग शास्त्रों को जानते हुए तथा अपने संशयों को नष्ट करते हुए भी, शास्त्रानुसार प्रवृत्ति नहीं करेंगे। (इसके अभाव में वे स्वर्ग में उत्पन्न नहीं होंगे।) इसलिये स्वर्ग ! तुम जाओ। अब तुम्हें कोई भय नहीं है।" _ 'मारेण संथुया माया तेण लोए असासाए' गाथा का उत्तरार्ध उक्त कथानक का पूरा द्योतक नहीं है। आचार्य नागार्जुन ने इस स्थान पर जो श्लोक मान्य किया है, वह अक्षरश: इस कथानक का पूरा द्योतक है। चूर्णिकार ने यह श्लोक 'नागार्जुनीयास्तु पठन्ति' कहकर उद्धृत किया है, वह इस प्रकार है-" ___ अतिवयि जीवाणं, मही विण्णवते पमुं। ततो से माया संजुत्ते, करे लोगस्सभिद्दवा॥ चूर्णिकार ने मार का अर्थ विष्णु किया है। विष्णु को सृष्टि का कर्ता मानने वाले कहते है कि विष्णु ने स्वयं स्वर्गलोक से एक अंश में अवतीर्ण होकर इन सभी लोकों की सृष्टि की। वह सव सृष्टि का विनाशकर्ता है, अत: विष्णु को ही मार कहा है। वे मार का अर्थ मृत्यु भी करते है।" 296 / सूत्रकृतांग सूत्र का दार्शनिक अध्ययन Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003613
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra Ka Darshanik Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNilanjanashreeji
PublisherBhaiji Prakashan
Publication Year2005
Total Pages436
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Philosophy, & agam_related_other_literature
File Size18 MB
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