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होता, अत: विकृति भी नहीं है। 20 मूल प्रकृति पुरुष दोनों अनादि है । 21 शेष तेईस तत्त्व प्रकृति के विकार है । यही प्रधानकृत सांख्य-सृष्टि का स्वरूप है।
5. स्वयंभूकृत लोक
'सयंभूणा कडे लोए' अर्थात् 'यह लोक स्वयंभू द्वारा बनाया गया है' ऐसा महर्षियों ने कहा है।
चूर्णिकार महर्षि इसका अर्थ स्पष्ट करते हुए कहते है - महर्षि अर्थात् ब्रह्मा अथवा व्यासादि ऋषि । 22 वृत्तिकार स्वयंभू का अर्थ करते है विष्णु या अन्य कोई | 23 उल्लेखनीय है कि स्वयंभू शब्द ब्रह्मा तथा विष्णु दोनों ही अर्थ में प्रयुक्त होता है। संस्कृत में इसकी व्युत्पत्ति इस प्रकार होगी- 'स्वयं भवति इति स्वयंभू' अर्थात् जो अपने आप होता है, वह स्वयंभू है ।
कई मतवादियों का कहना है कि यह सम्पूर्ण संसार विष्णु से व्याप्त है। इस सम्बन्ध में वे प्रमाण प्रस्तुत करते है- जल में विष्णु है, स्थल में विष्णु है, पर्वत के मस्तक पर विष्णु है, अग्नि की ज्वालाओं से व्याप्त स्थल में विष्णु है, सारा जगत् विष्णुमय है। हे अर्जुन ! मैं पृथ्वी में भी हूँ, वायु, अग्नि और जल में भी हूँ। मैं समस्त प्राणियों में तथा सारे संसार में व्याप्त हूँ | 24
6. मार (मृत्यु) के द्वारा रचित माया
'मारेण संधुया माया, तेण लोए असासए' मार रचित माया के कारण यह संसार अशाश्वत् है अर्थात् इस संसार का प्रलयकर्ता मार है । वृत्तिकार ने मार शब्द का अर्थ यम किया है। 25 जो मारता है, नष्ट करता है, वह मार, मृत्यु या यमराज है। मार की उत्पत्ति का कारण बताते हुये वृत्तिकार कहते है कि स्वयंभू ने लोक की सृष्टि की। वह अतिभार से आक्रान्त न हो जाये, इस भय से यम नामक मार की सृष्टि की। उस मार ने माया को जन्म दिया। उस माया से लोग मरने लगे 126
'मारेण संथुया माया' प्रस्तुत चरण में वैदिक साहित्य में उल्लिखित मृत्यु की उत्पत्ति की कथा का संकेत है - ब्रह्मा ने जीवाकुल सृष्टि की रचना की । पृथ्वी जीवों के भार से आक्रान्त हो गयी । वह और अधिक भार वहन करने में असमर्थ थी । वह दौड़ी-दौड़ी ब्रह्मा के पास आकर बोली- प्रभो ! यदि सृष्टि का यही क्रम रहा तो मैं भार कैसे वहन कर सकूँगी ? यदि सब जीवित ही रहेंगे तो भार कैसे कम होगा ? उस समय परिषद् में नारद व रूद्र भी थे । ब्रह्मा ने
सूत्रकृतांग सूत्र में वर्णित वादों का दार्शनिक विश्लेषण / 295
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