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यहाँ 'पहाणाइ’' अर्थात् प्रधानादि में आदि पद से यह ध्वनित होता है कि प्रकृति से महत् (बुद्धितत्त्व) उत्पन्न होता है, महत् से अहंकार तथा अहंकार से षोडश तत्त्व (मन, 5 ज्ञानेन्द्रियाँ, 5 कर्मेन्द्रियाँ और 5 तन्मात्राएँ) उत्पन्न. होते है। 5 तन्मात्र से 5 महाभूत उत्पन्न होते है । वृत्तिकार ने इसी क्रम से सृष्टि के सर्जन को उल्लिखित किया है । "
अथवा आदिशब्द से स्वभावादि का ग्रहण किया है। एकान्त स्वभाववादी कहते है - जैसे काँटों की तीक्ष्णता स्वभाव से होती है, उसी प्रकार यह लोक भी स्वभाव से ही बना है। एकान्त कालवादी काल को ही जीव - अजीवमय या सुख-दुःख से युक्त जगत् का कारण मानते है । एकान्त नियतिवादियों के अनुसारजैसे मयूर के पंख नियतिवश रंग-बिरंगे व विचित्र होते है, उसी प्रकार यह लोक भी नियतिवश एवं नियतिकृत है।
सृष्टि की उत्पत्ति के विषय में सभी दार्शनिकों ने अपने-अपने दृष्टिकोण से चिन्तन प्रस्तुत किया है। सांख्यदर्शन के अनुसार मूल तत्त्व दो है - चेतन और अचेतन । ये दोनों अनादि तथा सर्वथा स्वतन्त्र है। चेतन-अचेतन का या अचेतन-चेतन का कार्य या कारण नहीं हो सकता। इस दृष्टि से सांख्य सृष्टिवादी नहीं है। वह सत्कार्यवादी है । अचेतन जगत् का विस्तार 'प्रधान' प्रकृति से होता है । इस अपेक्षा से शास्त्रकार ने सांख्यदर्शन को सृष्टिवादियों की कोटि में परिगणित किया है।
प्रधान प्रकृति का नाम है। वह सत्व, रजस्, तमस् रूप त्रिगुणात्मिका है। इसकी दो अवस्थाएँ होती है - साम्य और वैषम्य । साम्यावस्था में केवल गुण रहते है। यही प्रलयावस्था है। वैषम्यावस्था में ये तीनों गुण विभिन्न अनुपातों में परस्पर मिश्रित होकर सृष्टि के रूप में परिणत हो जाते है । इस प्रकार अचेतन जगत् का मुख्य कारण प्रकृति है ।
प्रकृति की विकार रहित अवस्था मूल प्रकृति है। चूँकि पूर्वोक्त चौबीस तत्त्वों में प्रकृति किसी से उत्पन्न नहीं होती, इसलिये उसे मूल कहा गया है।" महत्, अहंकार और पाँच तन्मात्राएँ ये सातों तत्त्व प्रकृति तथा विकृति दोनों में विद्यमान होते है। इनसे अन्य तत्त्व उत्पन्न होने से ये प्रकृति है और ये किसी न किसी अन्य तत्त्व से उत्पन्न होते है, इसलिये विकृति भी है। सोलह तत्त्व (मन, 10 इन्द्रियाँ व 5 तन्मात्राएँ) केवल विकृति है । पुरुष (आत्मा) किसी को उत्पन्न नहीं करता, इसलिये प्रकृति नहीं है और वह किसी से उत्पन्न नहीं 294 / सूत्रकृतांग सूत्र का दार्शनिक अध्ययन
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