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बांबी) पृथ्वी से उत्पन्न होकर उसी में बढ़ता है, उसी का अनुगामी है और उसी के आश्रय से स्थित है, उसी प्रकार समस्त पदार्थ ईश्वर से उत्पन्न, संवर्द्धित और अनुगामी तथा उसी में व्याप्त होकर रहते है । (4) जैसे कोई वृक्ष मिट्टी से उत्पन्न होकर, मिट्टी से ही संवर्धित होकर,
मिट्टी का ही अनुगामी होता है, मिट्टी में ही व्याप्त रहता है, वैसे ही सभी पदार्थ ईश्वर से उत्पन्न यावत् उसी में व्याप्त होकर रहते है । (5) जैसे पुष्करिणी (बावड़ी ) पृथ्वी से उत्पन्न होती है और यावत् अन्त पृथ्वी में ही विलीन हो जाती है, उसी प्रकार समस्त पदार्थ ईश्वर से ही उत्पन्न होते हुए यावत् उसीमें लीन हो जाते है ।
(6) जैसे कोई जल का पोखर (पुष्कर) जल से ही उत्पन्न होकर, जल से संवर्धित, अनुगामिक होकर अन्त में जल को ही व्याप्त कर रहा है, उसी प्रकार यह चेतनाचेतनात्मक जगत् भी ईश्वर से उत्पन्न, , संवर्द्धित एवं अनुगामी होकर उसीमें विलीन होकर रहता है।
(7) जैसे कोई पानी का बुलबुला, पानी से उत्पन्न होकर, पानी में बढ़ता है, पानी का अनुगमन करता है और अन्त में पानी में ही विलीन हो जाता है, वैसे ही सभी पदार्थ ईश्वर से ही उत्पन्न होते है और अन्त में उसी में व्याप्त (लीन) होकर रहते है ।
सभासियाई में भी इन्हीं कारणों का वर्णन पाया जाता है । "
4. प्रधानादिकृत लोक
'पहाणाई तहावरे' अर्थात् यह लोक प्रधानादि कृत है । प्रधान का अर्थ है, सांख्यसम्मत प्रकृति ।
लोक की रचना के सन्दर्भ में पूर्वोक्त विकल्प में जगत् के रचयिता ईश्वर है, तो दूसरा विकल्प यह है कि पुरुष (ईश्वर) जगत्कर्त्ता नहीं हो सकता क्योंकि पुरुष (ईश्वर) स्वयं कर्तृत्व से रहित है, निर्गुण साक्षी व निर्लेप है । अतः प्रकृति ही जगत् की विधात्री, कर्त्ती, धर्त्री है।
प्रकृति का अपर नाम अव्यक्त भी है। सुख-दु:ख आदि सब प्रपंच प्रकृति के कार्य है । अत: वही जगत् का उपादान कारण है। सत्व, रज, तमस् इन तीनों गुणों की साम्यावस्था का नाम प्रकृति है ।" यह प्रकृति पुरुष के भोग एवं मोक्ष के लिये क्रिया में प्रवृत्त होती है ।
सूत्रकृतांग सूत्र में वर्णित वादों का दार्शनिक विश्लेषण / 293
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