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________________ आकाशवत् नित्य, स्वाधीन, सर्वज्ञ एवं सर्वशक्तिमान् भी मानते है और संसारी प्राणियों से कर्मफलों का भुगतान कराने वाला भी ईश्वर ही है, ऐसा मानते है।" नैयायिकों का ईश्वर जगत् का उपादान या समवायी कारण नहीं है। क्योंकि उपादान कारण तो कार्यरूप होता है। यदि ईश्वर को जगत् के जड़-चेतन पदार्थों का उपादान कारण माना जाय, तो वह जड़ को बनाकर स्वयं जड़मय बन जायेगा, चेतनवान नहीं रहेगा। यदि उसे जगत् का समवायी कारण माना जाता है, तो जैसे समवायी कारण अपने समान-जातीय दूसरे गुणों को कार्यरूप में उत्पन्न करता है, वैसे ही इस नियमानुसार ईश्वर में विद्यमान सर्वज्ञता का गुण उसके द्वारा निर्मित जगत् में भी होता। पर ऐसा दिखायी नहीं देता। अत: ईश्वर जगत् । का समवायी कारण भी नहीं है। वह कुम्हार की तरह जगत् का कर्ता रूप निमित्त कारण है। वैशेषिकों की मान्यता भी ईश्वरकर्तृत्ववाद के सम्बन्ध में लगभग ऐसी ही है।" सूत्रकृतांग सूत्र के द्वि. श्रु. के प्रथम पौण्डरीक अध्ययन में भी ईश्वरकर्तृत्वाद की चर्चा की गयी है। विशाल पुष्करिणी के ठीक मध्य में खिले पुण्डरीक कमल को प्राप्त करने की इच्छा वाला तृतीय पुरुष ईश्वरकारणवादी है। उसके मत से यह जगत् ईश्वरकृत है अर्थात् संसार का कारण ईश्वर है। शास्त्रकार ने ईश्वरवादियों की उन सात युक्तियों का भी उल्लेख किया है, जिनसे वे समस्त पदार्थों के रचयिता ईश्वर को मानकर ईश्वरकर्तृत्ववाद को सिद्ध करने का प्रयास करते है, जैसे - ___(1) किसी प्राणी के शरीर में लगा हुआ फोड़ा शरीर से ही उत्पन्न होता है, शरीर में ही बढ़ता है, शरीर का ही अनुगामी होता है और शरीर का आधार लेकर ही टिकता है, उसी प्रकार सभी धर्म (पदार्थ) ईश्वर के ही अनुगामी होते है और ईश्वर का आधार लेकर ही स्थित रहते (2) जैसे अरति (मानसिक उद्वेग) शरीर में ही उत्पन्न होकर, शरीर में ही बढ़ती हुई, शरीर की अनुगामिनी बनती है, शरीर को ही आधार बनाकर के पीड़ित करती हुई रहती है, इसी तरह सभी पदार्थ ईश्वर से ही उत्पन्न, उसी में वृद्धिगत और उसी के आश्रय में स्थित है। (3) जैसे वल्मीक (कीटविशेषकृत मिट्टी की स्तूप या दीमक के रहने की 292 / सूत्रकृतांग सूत्र का दार्शनिक अध्ययन Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003613
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra Ka Darshanik Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNilanjanashreeji
PublisherBhaiji Prakashan
Publication Year2005
Total Pages436
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Philosophy, & agam_related_other_literature
File Size18 MB
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